Thursday, October 27, 2011

कितना बदल गया है सब कुछ


कितना बदल गया है सब कुछ.

वो बचपन भी कितना हसीं होता था. तब ना कोई चिंता ना कोई फिकर. 
मस्तमौला से हवाओं के साथ उड़ना और मछलियों के साथ तैरना. 
कहां गया वो सब.....पीछे छूट गया वो सब...

उसने नही छोड़ा.. मैं ही उसे छोड़ आई...

वो बात बात पर इठलाना पतंगे की तरह हवा में उड़ना...ठिठकना..ठहरना और फिर उड़ जाना 
बचपन था वो...मदमस्त बचपन 
जिसे चाहकर भी फिर से नहीं पा सकता कोई ...
वो मासूमियत ..वो भोलापन 

उसकी जगह रोजमर्रा की भागदौड और दौडधूप ने ले ली.

तब खेलते हुए गिर पड़ने और चोट लगने पर भी गम नही होता था. 
अब ना जाने कौनसा खेल कब गम देदे, पता ही नहीं चलता.
तब खुशी से भी आंसू लुढक पड़ते थे और गम से भी...

तब दोस्तों  के टिफिन से सब्जी चुरा कर खाना एक उपलब्धि होती थी. 
तब गलियों  में दौड लगाना और जीतना विश्वविजेता की सी अनूभूति देता था. 
तब  खेतों के आम चूसना एक बेहतरीन एहसास होता था. 

बचपन छूट जाता है....ना हम उसे दुबारा जी पाते है. ना ही जीने के बारे में सोच पाते है. 

अपने ही दिखावे और आडम्बर की आड में अपने ही वजूद कों खो देते है. 

तब गम का सिर्फ एक मतलब होता था.. जोर से रो लेना. 
लेकिन अब उन आंसुओं कों पलखो में सजाने से पहले अपनी ही मुस्कुराहटो से धोना पड़ता है.

तब सिर्फ कम नंबर आने  पर,  होमवर्क ना करने पर और मेच हार जाने पर रोना आता था. 
आज कोई कारण  नही होता....
बरबस ही अपनेपन में किसी से लिपट जाते है और फिर याद आता है कि हम गलती कर बैठे. 

तब सिर्फ एक ही डर होता था कि कोई बस्ते में से चुरा कर हमारी चोकलेट ना खा जाए. 
अब उस चोकलेट की जगह हमारे खुद के वजूद ने ले ली है. 

तब माँ के बिना अँधेरे में चलने से डर लगता था. 
लेकिन अब खुद की ही परछाई से भय लगता है.....ना जाने कब दगा देदे.

तब अगर कोई प्यारा दोस्त एक घंटे बात नहीं करता है तो हम रो रो कर उसे मनाते है..
ना जाने कब उसकी जगह अहम ने ले ली और हम रूठो कों मनाना ही भूल जाते है. 

तब अगर कोई गुस्सा करता भी था तो अपनी मासूम सी मुस्कराहट से उसे मनाने की अदा हम जानते थे. 
अब हम खुद ही वो अदा भूल गए....

तब राह चलते किसी बुजुर्ग कों राह पार करना हमारा पहला धर्म होता था, 
भले ही एक्जाम ही क्यू ना छूट जाए. 
आज इंसानों की भीड़ में कुछ यू गम हुए कि किसी कों राह पार कराना ही भूल गए. 

तब मन में एक उमंग थी...जो आज भी होती है और हमेशा रहेगी..
लेकिन उसके साथ कई ऐसी चीजे जुड़ आती है ....जो हम नही चाहते.

लेकिन यही तो विशेषता है कि हम उन सभी तो आत्मसात कर लेते है...
ना टूटते है ना डिगते है....बस चलते रहते है 

क्युकी हमारे बचपन ने सिखाया है हमे कि, चलने की कोशिशो में कई बार गिरोगे तुम..
लेकिन घबराना मत...
फिर उठ खड़े होना ..
क्योकि इस बार चल पड़ोगे तुम. 

Tuesday, October 4, 2011

वास्तविक भागवत तो तुम हो राधिके

वास्तविक भागवत तो तुम हो राधिके
किसे तुम्हारे सौभाग्य पर, मूर्त हुआ है समस्त आर्यावर्त.
तुम्हारे सिन्दूर के मूल्य पर जीवित रहा है समस्त भारत वंश.

राधा, कृष्ण प्रिया हो तुम, अपने समस्त रोम में तुमने कृष्ण कों जिया है.
उससे सच्चा प्रेम किया तुमने,
इसलिए कर्म के पथ पर उसे अग्रसर करवाकर देवता बना डाला तुमने.
उसे योगेश्वर बना डाला और स्वयं एक विरहणी ही बनी रह गयी.

तुम चाहती तो अक्रूर के रथ के सम्मुख आकार कृष्ण कों रोक लेती.
तुम प्रेयसी हो, नैनो से नैन मिला कर कहती "ना जाओ कान्हा"
तो क्या जा पाता तुम्हारा कृष्ण

यमुना के किनारे, सघन कुंजो में उसकी बांह पकड़ कर उसे कहती
"कान्हा मैं कैसे रहूंगी रे, ना जा" तो ना जा पाते कृष्ण
उसी गोकुल में रह जाते यशोदानंदन.

गायें चराते, वत्सो के संग दौड़ते और माखन चुराते रह जाते कृष्ण
गीता के समरांगण में अर्जुन कों "कर्मण्ये वाधिकारस्ते" का उपदेश देने वाले द्वारिकाधीश से वंचित हो जाता ये जग

अधर्मियो और पापियों के विनाश से वंचित रह जाता ये जग
महर्षि व्यास के अद्वितीय काव्य कों कोई गति नही मिल पाती जो तुम नही होती राधिके.

तुम स्वयं प्रेम की देवी हो राधिके, तुम्हारे अश्रु देख कर भी ना पिघल सके ऐसा पत्थर कौन होगा.
विकल, व्यथित हो तुमने अपने कान्हा कों कर्म के पथ पर विदा किया.
और स्वयं समस्त जीवन किया तो सिर्फ विरह की पीर कों सहन,
लेकिन कभी कोई उल्हाना नही दिया.

कृष्ण द्वारिकाधीश होगये, उन्हें पटरानियां थी, वैभव था.
परन्तु तुम ना थी राधिके,
 फिर भी तुम्हारा प्रेम शक्ति बनकर कान्हा कों कृष्ण बना रहा था.

तुम्हारी हर वेदना, हर अश्रु के साथ कृष्ण के लिये प्रार्थनाए निकलती थी.
तुम्हारा ही  तो प्रेम उसकी प्रेरणा था राधिके. उसकी शक्ति था, उसकी सामर्थ्य था,
तुमने उसे योगीराज, द्वारिकाधीश कृष्ण बनाया.

अपने प्रेम के मूल्य पर मनुष्य की कई संततियो पर उपकार किये तुमने.
उन्हें एक आराध्य दिया पूजा के लिये,
 परन्तु उस आराध्य की आराधना भी तुम हो और उसकी वास्तविक आराध्य भी तुम.

ना पांडव विजय सुनिश्चित होती, ना किसी दुष्ट जरासंध या कंस का संहार होता,
पृथ्वी यू ही पाप के बोझ से दबी जाती राधिके जो तुम ये त्याग ना करती.
समस्त मानवता की रक्षिका हो तुम.

श्रीमदभागवतमहापुराण और भगवदगीता का मूल हो तुम
समस्त वेद, पुराणों और उपनिषदों का सार हो तुम.
राष्ट्र और  राष्ट्रीयता की रक्षिका हो तुम.
तुम्हारी प्रेम के मूल्य पर द्वापरयुग कृष्ण का युग बन पाया.

वास्तविक भागवत तो तुम हो राधिका.
किसे तुम्हारे सौभाग्य पर, मूर्त हुआ है समस्त आर्यावर्त.
तुमने बनाया है कान्हा कों कृष्ण.
तुम महादेवी हो राधिके...वास्तविक भागवत तो तुम हो राधिके