Tuesday, November 17, 2015

My Poem My Daughter

मेरी कविता 

बिलकुल मेरी बेटी जैसी है मेरी हर कविता
जैसे माँ पेट में पालती है एक अनदेखे भ्रूण को।
बुनती बिगाड़ती है कुछ ख्वाब 
संजोती है थोड़े से सपने 
कुछ डरती है 
थोड़ा घबराती 
फिर से जुट जाती है सार सम्भाल में। 
कैसे होंगे उसके कपड़े झूला और खिलौने 
वैसे ही मैं सोचती हूँ क्या होंगे उसके उपमा अलनकार और लक्षण। 
तीव्र वेदना पाती हूँ उसकी खातिर। 
उसके पात्रों को गर्भस्थ की भांति जी जाती हूँ खुद के भीतर। 
और फिर एक दिन 
पा जाती हूँ
 नन्ही सी 
मुस्कुराती 
मेरे पेन से डिलीवर होती मेरी बेबी।
एक बार फिर बन जाती हूँ माँ मैं। 
उसे साकार देख कर खिल जाती हूँ। 
उसे अंक में देख कर जी जाती हूँ। 
क्योंकि वो मेहज कविता नहीं 
मेरी बेटी बन जाती हैं।
©आशिता दाधीच