याद नहीं आता?
मेरा वो तुम्हारे बिस्तरों पर तुमसे लिपट कर सोना,
अब बताओं मेरे बिना कैसे नींद आती है तुम्हें।
क्या चादर की वो सलवटें तुम्हें तनहा सोने देती है,
अकेलेपन में क्या मेरे नाम से कसक नहीं उठती है।
जब जब बारिश गिरती है, बूंदें तुम्हे भिगोती है,
क्या याद नहीं आता तुमको मुझ संग भीगना,
समंदर में पैर भिगोना और बस हंसते रहना,
क्या तुम्हारी तन्हाई मेरे अभाव में तुमसे सवाल नहीं करती।
जब पहली बारिश से जमीन भीगती है,
कलियों से कुछ पंखुड़ियां और फूल खिलते है,
हमारे वो मिलन तीर्थ जब भीगते है,
क्या ये सब तुम्हारी आंख नहीं भिगो देते।
तुम्हारे आंगन में जहां एक दूसरे में लिपट कर बैठते थे हम
वहां जमी धुल को पोंछते पोंछते मेरी याद नहीं ताजा कर जाते।
किसी को खुद पर ना झल्लाता पाते क्या राहत पा जाते हो तुम,
हाँ, अब कोई नहीं लड़ता तुमसे, पर क्या इससे खुश हो जाते हो तुम।
हमारे वो सारे चिन्ह समेटे, उन जगहों पर घूमते
मेरा जिक्र छिड़ जाने से बचते, खुद से उलझे,
बिना कोई जुमला जोड़े, उन कविता को फिर से बोलते,
क्या तुम्हे कभी प्यार जैसा कुछ याद नहीं आता।
याद नहीं आता
तुम्हे वो पहला खत, जो मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर लिखा था.
तुमने कुछ नुक़तों की गलती निकाल के हमको खूब खिजाया था |
क्या अब कोई खत पढ़ते हुए, तुमको हमारी याद नहीं आती ?
कोई कविता सुनकर पलखें नम नहीं हो जाती।
क्या अब भी मन मचलता है तुम्हारा पहनने को कोई कंगन,
अपनी माँ को कलाई में चूड़ियां सजाते देख क्या जी नहीं कचोटता तुम्हारा,
तुम्हारा वो मेरे सारे कंगन पहन लेना और उन्हें बजा बजा कर इठलाना,
क्या अब वो झंकार चीख चीख कर अंधियारों में तुम्हे नहीं पुकारती।
वो फूल जो मैं तुम्हे दिया करती थी, क्या अब भी रखे है,
तुम्हारी किताबों के बीच,
उन फूलों को देखकर क्या मेरे समर्पण की लाली रंग नहीं लाती,
रंग लाती है तो क्यों तुम्हारी रूह इस विरह से कांप नहीं जाती।
अब, तुम्हे शायद कुछ याद नहीं आता,
कुछ लोगों की साजिशें और कुछ रंजिशें
धुंधला कर गई है उस मुहब्बत को,
मिटा दिया उन्होंने तेरे मेरे प्रेम को,
नफरत की बारिश से।
तुम्हारे सीने पर मंढ चुके मेरे नाखूनों के घावों की ही तरह
भर गए है हमारी जुदाई के जख्म।
पर जब फिर से छाएगा सावन, बरसेगी कोई घटा,
तब हर झूठ के बादल को फाड़कर,
फिर से उगेगा मेरी मोहब्बत का सूरज।
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