उलझी सी वो पगली सी लड़की,
कौन है अपना
कौन पराया नहीं जानती।
अपनों को खोती,
गैरों से मिलती,
चोट खाती
बार बार गिर जाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
कितनों के आंसू पोंछा करती
हर रात खुद से तन्हा रोया करती
कुछ पाने को
फिर ख्वाब संजोती
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
खुद ही खुद पे इठलाती,
बाल बनाती
काजल लगाती
फिर खुद के पोंछ के सिंगार जोगन सी हो जाती।
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
किसी की एक झलक की खातिर
मीलों तक चल के जाती,
थोड़ी सी अवहेलना पर मुंह फुला के बैठ जाती,
गमों की गंगा पल में पी जाती।
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
महलों से भी खुश न होती
सूखी रोटी पर रीझ जाती
दुनिया की हर रीत निभाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
चिड़िया सी गुन गुन गाया करती
दुनिया की रस्मों से टकराती,
कुछ बदलने की कसम उठाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
एक पल सब कुछ पाने को लड़ जाती
दूजे सब सब लुटा देने को जुट जाती,
पहाड़ों को सह जाती पर कंकड़ से डर जाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की।
सारी दुनिया को दोस्त बना कर
फिर भी तन्हा रह जाती,
उलझी सी वो पगली सी लड़की,
उलझी सी वो पगली सी लड़की....
©आशिता दाधीच
#AVD
The best words I had seen with you here
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