13 जुलाई 2010.
कैसे भूल सकती हूँ मैं इस दिन कों ?
यही दिन था जब मेरा वियोग लिखा था विधाता ने . धरती धोरां री से , रेट के टीबों से , बनास की धारा से.
सुबह हुई . लेकिन मेरे लिये ये सुबह हर दुसरी सुबह से अलग थी..
शयद आँखों में ढेर सारे आंसू थे, जिन्हें रोक रही थी मैं कोशिशे करके .
ना जाने कितने लोग दिन भर मिलने आए. किसी से नही बोल पायी मैंने.
मेरी अपनी मा तक से भी नही बोली एक भी शब्द ताकी आदत पड सके उससे बोले बिन रहने की..
घड़ी में शाम के ४ बजे थे ... बैग पैक था...माँ मुझे छोड़ने आना चाहती थी.
पर मैं ही नही चाहती थी..
पॉप्स के साथ स्टेशन पहुची ..दिल में तूफ़ान था..
समझ नही पा रही थी कैसे रिएक्ट करू ? अपना ख्वाब सच होने की खुशी मनाऊ या जोर से रोऊ
पापा कों यू देख रही थी मनो वो मेरा किडनेप करके मुझे दरिया में फेकने जा रहे हो.
धीरे से बोला मैंने "नही जाना मुझे मुंबई" पर शायद उन्होंने सुना नही.
रात साढ़े दस की ट्रेन थी मावली से ...दिल में तूफानों की होली जल रही थी.
लेकिन मैं थकी हुई थी. शायद अपनी धरती माँ कि गोद मैं जी भर कर सोने का लुफ्त उठा लेना चाहती थी.
कब आँख लगी पता नही...या शयद मैं खुद का सामना नही कर सकती थी.इसलिए उठी हि नही.
दिन के ढाई बजे बांद्रा टर्मिनस उतरी .... १४ जुलाई का दिन था वो.
अब से पहले बीसीयो बार मुम्बई आई थी. लेकिन इस बार मायानगरी कुछ अलग लगी.
शायद मेरी आँखों में सजे सपने इसके रंग कों और भी रंगीन बना रहे थे.
यहाँ कई लोगो कों जानती थी मैं
लेकिन अब उन सब के साथ एक रिश्ता जोड़ना था ..उन्हें अपना बनाना था.
अपनी जिंदगी कों नए लोगो के साथ जुड़ कर सजाना था.
कई नए लोग मिलेंगे अब ...अब यही मेरी कर्मभूमि है. सोच कर रोमांचित थी मैं.
समय पंख लगा कर उड़ा ..पता ही नही चला कब एक साल पूरा होगया ...
आज पीछे मुड कर देखती हूँ तो सोचती हूँ इस शहर ने कितने एहसान किये मुझ पर
क्या क्या नही दिया ...
आज कुछ हूँ शयद ये कह सकती हूँ ...माटी माँ मुझ पर गर्व कर सके इस लायक बन पाउंगी ये विश्वास है.
कल ही लवीना फोन पर कह रही थी...."क्या तू वही है जो एक साल पहले यहा से गयी थी...नही ..तू वो नही है कितनी बदल गयी है तू
हाँ मुम्बईकर हो गयी हूँ मैं ....इस शहर से प्यार हो गया है मुझे.
कृतग्य हूँ मैं इसके दिए उपहारों की
वो शहर जिसने मुझे खुद का नाम दिया... पहचान दी.
प्यार और समर्पण के मायने सिखाए .... एक साल में मुझे सब कुछ दिया
माँ मुम्बा देवी ..तुम्हारा लाख लाख धन्यवाद जो तुमने मुझे अपने आंचल कि छाव दी.
मुम्बई.... शुक्रिया मुझे खुद में मिलाने और अपना बनाने के लिये.
आशिता,
ReplyDeleteदर्द और उमंग के इस मिश्रण को मैं समझ सकता हूँ. तुम मेवाड़ी से "मुम्बईकर" हुई तो मैं "दिल्लीवाला"...
खैर धोरों की धरती से तो रोज़ हजारों पलायन होते है.. शरीरों के ...मन वहीँ रह जाते है...