और आखिरकार 2016 की 16 जनवरी को मेरे बचपन का दूसरा सपना पूरा हुआ, मेरे बच्चे पहली बार विदेश जा रहे थे, बच्चे हाँ मैं उन्हें अपना बच्चा ही मानती हूँ, मासूम भोले और हमेशा मुझे ख़ुशी देने वाले मेरे माँ और पा।
चार महीने से तैयारियां चालू थी, पासपोर्ट बनाना फिर टिकट लेना, इस बीच यात्रा के लिए कोई एजेंट खोजना, होटल बुकिंग, कपड़े जूते खरीदना।
जैसे जैसे यात्रा की तारीख पास आ रही थी, दिल धड़क रहा था, जोरों से, क्या होगा, कैसे होगा। एक गर्व भी था कि जो अब तक मेरे बारें में चिंता करते थे, मैं किसी बुरे इंसान से ना बोलूँ, किसी मुसीबत में न फंस जाउ, अब उनके बारें में यह सब मैं सोच रही थी, शायद वह मुझे अपने बड़े होने का पहला एहसास था।
खैर अपने एविएशन रिपोर्टर होने से एक शान्ति थी कि कुछ हुआ तो मैं सम्भाल लुंगी, दूसरी हिम्मत थी उस दुबई के एजेंट की। वो एजेंट जो गुजराती है, और गुजराती लोगो से मेरी पटरी भी अच्छी खासी जमती है, बची कूची हिम्मत एयरपोर्ट के कुछ सोर्सेज ने दे दी।
इस बीच एक और चीज जो मुझे अजीब लगी वह थी पापा की बिना एविएशन के बारें में जाने एयर इंडिया पर विश्वास वह भी महज इस लिए क्योंकि वह राष्ट्रीय एयरलाइन है, बरहाल मैंने उनका टिकट एयर इंडिया का ही लिया।
उस दिन जब टर्मिनल पर उन्हें छोड़ा तो साँसे जैसे रूक सी गई, एक सोर्स को इशारा किया कि कोई दिक्कत हो तो इन्हें अटेंड करना, एयर इंडिया पीआर टीम के अर्पित भी दो बार फोन कर चुके थे उनकी कुशलता जानने के लिए, बरहाल पा ने अंदर जाके हाथ हिलाया और मुझे जाने को कहा, वैसा ही लगा मुझे जैसे माँ अपने बच्चे को पहली बार स्कूल भेजते हुए सोचती है जबकि ये दोनों देश के 17 राज्य घूम चुके थे, मैं डर रही थी, शायद इसलिए क्योकि मुझे खुद के बड़े होने का घमण्ड हो गया था। यह भी पता था कि ये खुद्दार लोग किसी की मदद नहीं लेंगे हर बात से निबट लेंगे।
बरहाल 25 की सुबह आठ बजे ये लोग लौटे, घर आए, संयोग से मुझे जल्दी निकलना था तो ज्यादा बात कर नहीं पाई, कुर्ला आना था, बडोदरा में डिटेन हुए लड़कों की फैमिली का इंटरव्यू करने के लिए और चिंतन की भी तो पेशी थी।
बस इतना ही पूछा यात्रा कैसी रही।
तो फिर पा बस शुरू हो गए,
एयरपोर्ट बहुत सुंदर है, दुबई के से भी सुंदर, सब अजन्ता एल्लोरा जैसे बने है, कोई इंडिया के बारे में ना जानता हो तो भी जान जाएगा। काउंटर पे भी ज्यादा वक़्त नहीं लगा, झट पर सील ठप्पे हो गए, सुरक्षा जांच के नाम पे भी हमें परेशानी नहीं हुई। एयर इंडिया काउंटर पर तो जाते ही बोर्डिंग पास मिल गया। वीजा पे थोड़ी लाइन थी और एक घंटे वेटिंग रूम में बैठे पर घोषणा होने से आसानी रही। बाद में बस से हम फ्लाइट तक गए,
फ्लाइट बहुत सुंदर थी, सीट पर टीवी सेट थे, अटेंडेंट बहुत व्यवहारीक थी, अच्छा समझा रही थी, बार बार खाने पीने का भी पूछ रही थी, खाना बड़ा स्वाद था, एक दम घर जैसा, दाल चावल, सब्जी रोटी।
वहां भी लोग अच्छे थे, कितनी शांति थी, कोई ठग नहीं, और खूब स्वच्छता, बड़े रोड, सुंदर इमारते और कोई गुंडागर्दी नहीं, ऐसा लगा जैसे ये कोई दुनिया ही दूसरी है।
वापस आते हुए फ्लाइट उतनी सुंदर नहीं थी, बैक सीट पे टीवी काम नहिं कर रहे थे पर था भी तो रात का वक्त, जाते ही खाना दिया होस्टस मैडम ने, जो अच्छा था, और फ्लायट हमें बीस मिनट पहले मुम्बई ले आई, बस और क्या चाहिए।
हाँ आते वक्त ऑटो वाले ने मीटर से आने को मना किया और डेढ़ सौ रूपये मांगे यह कहकर की वो दो घंटे से लाइन में लगा है उनकी मेहनत है, पर हमने नहीं दिए हम मीटर से ही आए।
चार महीने से तैयारियां चालू थी, पासपोर्ट बनाना फिर टिकट लेना, इस बीच यात्रा के लिए कोई एजेंट खोजना, होटल बुकिंग, कपड़े जूते खरीदना।
जैसे जैसे यात्रा की तारीख पास आ रही थी, दिल धड़क रहा था, जोरों से, क्या होगा, कैसे होगा। एक गर्व भी था कि जो अब तक मेरे बारें में चिंता करते थे, मैं किसी बुरे इंसान से ना बोलूँ, किसी मुसीबत में न फंस जाउ, अब उनके बारें में यह सब मैं सोच रही थी, शायद वह मुझे अपने बड़े होने का पहला एहसास था।
खैर अपने एविएशन रिपोर्टर होने से एक शान्ति थी कि कुछ हुआ तो मैं सम्भाल लुंगी, दूसरी हिम्मत थी उस दुबई के एजेंट की। वो एजेंट जो गुजराती है, और गुजराती लोगो से मेरी पटरी भी अच्छी खासी जमती है, बची कूची हिम्मत एयरपोर्ट के कुछ सोर्सेज ने दे दी।
इस बीच एक और चीज जो मुझे अजीब लगी वह थी पापा की बिना एविएशन के बारें में जाने एयर इंडिया पर विश्वास वह भी महज इस लिए क्योंकि वह राष्ट्रीय एयरलाइन है, बरहाल मैंने उनका टिकट एयर इंडिया का ही लिया।
उस दिन जब टर्मिनल पर उन्हें छोड़ा तो साँसे जैसे रूक सी गई, एक सोर्स को इशारा किया कि कोई दिक्कत हो तो इन्हें अटेंड करना, एयर इंडिया पीआर टीम के अर्पित भी दो बार फोन कर चुके थे उनकी कुशलता जानने के लिए, बरहाल पा ने अंदर जाके हाथ हिलाया और मुझे जाने को कहा, वैसा ही लगा मुझे जैसे माँ अपने बच्चे को पहली बार स्कूल भेजते हुए सोचती है जबकि ये दोनों देश के 17 राज्य घूम चुके थे, मैं डर रही थी, शायद इसलिए क्योकि मुझे खुद के बड़े होने का घमण्ड हो गया था। यह भी पता था कि ये खुद्दार लोग किसी की मदद नहीं लेंगे हर बात से निबट लेंगे।
बरहाल 25 की सुबह आठ बजे ये लोग लौटे, घर आए, संयोग से मुझे जल्दी निकलना था तो ज्यादा बात कर नहीं पाई, कुर्ला आना था, बडोदरा में डिटेन हुए लड़कों की फैमिली का इंटरव्यू करने के लिए और चिंतन की भी तो पेशी थी।
बस इतना ही पूछा यात्रा कैसी रही।
तो फिर पा बस शुरू हो गए,
एयरपोर्ट बहुत सुंदर है, दुबई के से भी सुंदर, सब अजन्ता एल्लोरा जैसे बने है, कोई इंडिया के बारे में ना जानता हो तो भी जान जाएगा। काउंटर पे भी ज्यादा वक़्त नहीं लगा, झट पर सील ठप्पे हो गए, सुरक्षा जांच के नाम पे भी हमें परेशानी नहीं हुई। एयर इंडिया काउंटर पर तो जाते ही बोर्डिंग पास मिल गया। वीजा पे थोड़ी लाइन थी और एक घंटे वेटिंग रूम में बैठे पर घोषणा होने से आसानी रही। बाद में बस से हम फ्लाइट तक गए,
फ्लाइट बहुत सुंदर थी, सीट पर टीवी सेट थे, अटेंडेंट बहुत व्यवहारीक थी, अच्छा समझा रही थी, बार बार खाने पीने का भी पूछ रही थी, खाना बड़ा स्वाद था, एक दम घर जैसा, दाल चावल, सब्जी रोटी।
वहां भी लोग अच्छे थे, कितनी शांति थी, कोई ठग नहीं, और खूब स्वच्छता, बड़े रोड, सुंदर इमारते और कोई गुंडागर्दी नहीं, ऐसा लगा जैसे ये कोई दुनिया ही दूसरी है।
वापस आते हुए फ्लाइट उतनी सुंदर नहीं थी, बैक सीट पे टीवी काम नहिं कर रहे थे पर था भी तो रात का वक्त, जाते ही खाना दिया होस्टस मैडम ने, जो अच्छा था, और फ्लायट हमें बीस मिनट पहले मुम्बई ले आई, बस और क्या चाहिए।
हाँ आते वक्त ऑटो वाले ने मीटर से आने को मना किया और डेढ़ सौ रूपये मांगे यह कहकर की वो दो घंटे से लाइन में लगा है उनकी मेहनत है, पर हमने नहीं दिए हम मीटर से ही आए।
Hayy your bacche can I prapose you here
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