Saturday, May 13, 2017

A letter to Mother

मां,
आज तुम्हारे जन्मदिन के मौके पर पहली बार कुछ लिख रही हूँ तुम्हारे लिए शायद तुम्हे शब्दों में भर पाऊं, मेरे लिए तुम गंगोत्री की गंगा हो जिसकी शुभ्रता और निर्मलता के समक्ष में कानपुर की गंगा हूँ।
कभी कभी तुमसे बहुत नफरत होती है माँ, जानती हो क्यों, क्योंकि जैसे तुम चाहती हो मुझे, मैं उसका आधा भी नहीं चाह पाती तुम्हे, जो तुम दे देती हूँ सहजता से वो क्यों नहीं दे पाती मैं और फिर भी तुम्हे शिकायत नहीं होती।
जब मैं खुद को ऑफिस के काम में बिजी बता कर तुम्हारा फोन काट देती हूँ, तुम नाराज क्यों नहीं होती, गुस्सा क्यों नहीं करती जैसे मैं कर देती हूँ तुम्हारे द्वारा मेरा फोन काटे जाने पर।
तुम्हे पता है माँ मुझे तुमसे जलन होती है, तुम कितनी खूबसूरत हो और तुम्हारे वो कॉलेज वाले पिक्स, और मैं तुम्हारी दस फीसद भी नहीं। और हां मां कहां तुम इतनी बहादुर और कहां मैं इतनी डरपोक, कहां तुम इतनी जिजीविषा से भरी और कहां मैं थकी सी, कहां तुम सर्वदा ऊर्जा से भरी त्यागशील और कहां मैं स्वार्थी जीव।
सुना है मेरे बचपन में जब भी तुम खाना खाने बैठती थी तभी मुझे लेट्रिन आती थी और तुम थाली छोड़ दिया करती थी। फिर स्कूल में जब सड़क पर घुटने घुटने बरसाती पानी भर जाता था, तुम मुझे गोद में उठा कर घर लाती थी, तुम्हारे छोटे कद में मुश्किल होता होगा न पानी में चलना।
और जब क्लास के शैतान बच्चों ने मुझे सीढ़ियों से गिरा दिया था तब एक एक के घर गई थी न तुम उनके पैरेंट्स को उनकी शिकायत करने, लेकिन क्या तुम्हें सताने वालों से कभी मैं झगड़ पाई।
मां मैं हमेशा कहती हूँ न कि पापा स्वादिष्ट खाना बनाते है और तुम्हारा मुंह छोटा सा हो जाता है लेकिन सच कहूँ मां तृप्ति बस तुम्हारे बनाए खाने से ही आती है।
मैं हमेशा कहती हूँ न मां कि तुम्हे अच्छे कपड़े खरीदने की अक्ल नहीं है, लेकिन मैं जानती हूँ तुम जानबूझ कर सस्ती साड़ी खरीदते हो ताकि मुझे महंगे कपड़े दिला सको।
मां, मुझे पता है कि तुम मेरे लिए वो वनपीस क्यों लाई थी, क्योंकि तुम समझ गई थी कि मुझे वैसे ही कपड़े पसन्द है, दुकानों में उन कपड़ों को निहारते वक्त मेरी आँखें देख कर।
मां जब मैं कहती हूँ, तुम्हे कुछ नहीं आता,तुम कुछ नहीं समझती, तब तुम मुझे क्यों चांटा नहीं मारती, क्यों सह लेती हो, यदि तुम कुछ कहोगी तो मैं तो न सहूंगी मां ना।
उस दोपहर मेरी ब्रा का हुक लगाते तुमने मेरी पीठ के वो निशां भी देखे थे ना, दुनिया की नजर में मैं काला मुंह करवा चुकी थी तब तुमने क्यों बस मेरा ललाट चूमा मां और मुझे कुछ बोला तक नहीं।
जब मैं टूट रही थी, तकिये पर मुंह छिपा कर रोती थी रात रात, तुम समझती थी न, तभी तो मुझे फ़िल्म या रेस्टोरेंट होटल ले जाती रही तुम ताकि मेरा ध्यान बंट जाए लेकिन तुम तब भी कुछ न बोली।
मेरा एग्जाम था और तुम्हारी बहन मर गई तुम तब भी कुछ न बोली ताकि मेरा एग्जाम न बिगड़ जाए।
जब मैंने तुम्हारे फोन न उठाए क्योंकि मैं काम में थी तो उन रातों तुम भूखी सो गई लेकिन कुछ न बोली, क्यों मां, क्यों??
जब मेरे कुछ दोस्तों को तुमने बुरा कहा मैं झगड़ी तुमसे, खूब रोइ, लेकिन एक वक्त बाद वो सब सच में बुरे निकले, तुम्हे हर चीज कैसे पहले ही पता होती है माँ, ज्योतिषी हो क्या तुम?
जब मैं निराश होती हूँ कैसे एक हजार किलोमीटर दूर तुम्हे पता चल जाता है और तुम्हारा फोन आ जाता है।
मां क्यों तुमने तब भी कुछ नहीं कहा जब मैंने तुम्हें ये नहीं आता वो नहीं आता या तुम्हे कुछ नहीं समझता कहकर सैकड़ों बार तुम्हारा अपमान किया।
क्यों मां क्यों??
तुम्हारी नालायक बेटी

©आशिता दाधीच