Saturday, November 19, 2016

Jhansi ki Rani Lakshmi bai

सोशल मीडिया पर झाँसी की रानी ट्रेंड हो रही हैं, झांसी की रानी, घोड़े पर चढ़ी एके सिंघनी सी औरत, पीठ पर बंधा बच्चा भारतीय माँ का प्रतीक, हाथों में तलवार, "लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार," शायद पहली कक्षा में थी जब पहली बार उनका चित्र देखा था और जैसे उस तस्वीर से मोहब्बत से हो गई, माँ ने उनके बारे में काफी कुछ बताया भी. लेकिन मेरे लिए झांसी की रानी मणिकर्णिका, छबीली, मनु बाई, लक्ष्मी बाई ज़िंदा होकर सामने उतर आई जब पहली बार चौथी कक्षा में सुभद्रा कुमारी चौहान की लिखी झाँसी की रानी कविता पढ़ी, और इस कविता की हर लाइन ने चौहान को मेरी प्रिय कवियत्री बना दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज से भी तो मेरा साबका चौहान ने ही करवाया जब उन्होंने कहा, "वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,"
सुभद्रा मैं तुम्हारी कृतज्ञ हूँ क्योंकि अपनी उस कविता के बूते तुमने मुझे मेरी नायिका दी जिसे मैं प्यार करती हूँ, जिसे मैं खुद में खोजना चाहती हूँ, "तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार....घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी" क्या लिखा तुमने सुभद्रा, झांसी वाली वो रानी जैसे उतर आई मेरी आँखों के आगे.
फिर अचानक उसी सिंघनी में तुमने अभिज्ञान शाकुंतलम की शकुंतला उतार दी, "सुभट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में, चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी." शुक्रिया चौहान मुझे वो लक्ष्मी देने के लिए जिससे मैं बेइंतेहा मोहब्बत करती हूँ.
तुम्हारी उन २१ अंतरों की वो कविता मेरे लिए जिंदगी कब बनी मुझे खुद नहीं पता चला. शायद तुम पैदा ही उस कविता को लिखने के लिए हुई थी. महादेवी ने भी तो निराला से तुम्हे कविता कहने वाली लड़की कह कर ही मिलाया था.
तुमने मेरे लिए झांसी की उस रानी को महानायिका बना दिया, आज भी कम से कम ४०० बार तुम्हारी वो कविता पढ़ने के बाद भी आज भी जब मैं गुनगुनाती हूँ, "रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में, ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी," रौंगटे खड़े हो जाते है "काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी," खून गर्म हो जाता है. "मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी," आंसू लुढ़क पड़ते है.
मेरे लिए लक्ष्मी तुम्हारी कलम से जीवित हुई सुभद्रा। सुभद्रा वो नाम जो कृष्ण की बहन थी, अर्जुन की शक्ति और अभिमन्यु की माँ, जो अमर रख गई पांडव वंश का बीज, बिलकुल वैसे ही तुम हमारे दिलों में लक्ष्मी बाई नाम की वह चिंगारी जगा गई जो कभी नहीं बुझेगी सुभद्रा।
"बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान" तुम्हे झाँसी की उस रानी के मार्फ़त भारतीय नारी के सम्मान की अचूक पुनर्स्थापना की है, और उसके लिए तुम्हे शुक्रिया सुभद्रा। "बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी," तुम्हारी छबीली साक्षात माँ शारदा थी हर कला में निपुण, लक्ष्मी तो वो थी ही, " हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में," और उस सी काली, चंडी, जगदम्बा तो वैसे ही हमें मिली ही कितनी थी.
अपनी अद्वितीय कलम से तुमने लक्ष्मी को अमर कर दिया, "जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी."
कई वीरांगनाएं सिर्फ सुभद्रा न होने के चलते इतिहास की किताबों से बारहवें से पन्द्रहवें पन्ने और शिक्षा विभाग की पाठ्यक्रम तय करने के मुबाहिसों के दरमियान ही दम तोड़ गयी. शुक्रिया सुभद्रा, हमें हमारी प्रेरणा देने के लिए, हमें लक्ष्मी देने के लिए.
© आशिता दाधीच।

Wednesday, October 26, 2016

Mahendra Singh Dhoni

My review on movie Mahendra Singh Dhoni untold story

माही दोस्त मजा नहीं आया। सॉरी यारा।

तुम अज़हर नहीं हो ना कि तुम्हे इस महिमामंडन की जरूरत थी।

तुम हो और हम तुम्हे जानते है, यह सब दिखाने की क्या जरूरत थी। प्रियंका झा, साक्षी, सब पता है धोनी हमे।
तुमने कौनसा शतक कब लगाया, जयपुर पारी में कितने छक्के लगाये तुम भूल गए होंगे हम नहीं भूले।

पान सिंह का बेटा, टिकट कलेक्टर धोनी, माता का भक्त धोनी, हैलीकॉप्टर वाला धोनी सब याद हैं हमे।

हाँ, हम विराट को चाहने लगे है पर तुम्हे भूले नहीं है, बिलकुल वैसे ही जैसे हमे आज भी श्रीनाथ, सचिन, राहुल सारे के सारे याद है और अपने पोते पोतियों के होने तक याद रहेंगे। जब हम अपने घर का पता भूल जाएंगे तब भी सौरव का ऑफ़ कट, सचिन का अपर कट और तुम्हारा हैलीकॉप्टर याद रहेगा।

और तुम तो अभी खेलते हो, फिर 22 गज की पट्टी से 72 एमएम तक जाने की जरूरत क्या थी दोस्त।
दोस्त किस संघर्ष की बात कर रहे हो तुम।

तुम दुति चाँद नहीं हो जिसे औरत होने के बावजूद मर्द कहा गया।
तुम मिल्खा नहीं हो जिसने विभाजन की दुखान्तिका देखी हो।
तुम मैरी कॉम नहीं जो आईसीयू में बच्चा होने पर भी पंच मार रही थी।
तुम वो एथलीट नही हो जिसे ज़िंदा रहने के लिए मिट्टी खानी पड़ी हो।

सॉरी दोस्त।

पर तुम एक मिडल क्लास परिवार के बेटे हो, और उस तबके से हो जहां से तीन चौथाई भारतीय आते है, यूपीएससी टॉप करते है, टूटे स्कूटर पर जिम्नास्ट प्रैक्टिस करते है, स्ट्रीट लाइट में पढ़ते है।

लगभग 80 प्रतिशत भारतीय परिवारों में बच्चे के सरकारी नौकरी में रहने का प्रेशर होता है।

याद है ना आर माधवन का थ्री इडियट्स वाला किरदार, जिसे फोटो ग्राफर बनना था पर उसके पिता उसे, इंजीनियर बनते देखना चाहते है। अधिकांश भारतीय परिवारों में बच्चे वही बनते है जो माँ बाप चाहते है, तो क्या अनोखा संघर्ष दिखा रहे हो तुम, दोस्त। तुमने विद्रोह किया, कई करते है, अपने सपनों का पीछा किया कई करते है।

फिल्म खुबसूरत है बेशक खूबसूरत है,सुशांत गजब है, नो डाउट, पर लाखों सवाल है मेरे दिल में।

इस महिमांडन की क्या जरूरत थी दोस्त?
©आशिता दाधीच

'Adios Amigo' Bye my friend

जा दोस्त जा
जाना ही है तुझे
पर फिर भी मैं रख लुंगी अपने साथ।

बिलकुल चुपचाप
बिना किसी को बताए
जैसे माँ रख देती थी
बैग के कोने में
रोटी और आचार।

जैसे खत्म होने से पहले भर देते थे
पापा मेरा गुल्लक हर बार।

सबको लगेगा तुम नही हो मेरे साथ।

पर तुम रहोगे वैसे ही
जैसे खीर में रहती है शक्कर।
और
सोने में रहती है रत्ती भर की खोट।

तुम्हे भी बिना पता चले
रख लुंगी अपने पास,
उतना ही छुपा कर
जितना मेरी पीठ पर
बना हुआ टैटू छुपा है।

और
तुम चलते रहोगे मेरे साथ
वैसे ही जैसे
चलती है मेरी
परछाई।

कोई तकलीफ नही होगी
तुम्हे इस दरमियाँ
क्योंकि
मैं रखूंगी तुम्हे वैसे ही
जैसे हथिनी रखती है
अपने बच्चे को
बारिश में
बिलकुल अपने पेट के नीचे।

साथ रख लुंगी तुम्हे वैसे ही
 जैसे
रख लेती है अँधेरे को
दीपक की छाया।

नहीं जाने दूंगी तुम्हे
वैसे ही जैसे
आम के पेड़ को रोक लेती है
गिलखी की वो बेल।

रोक लुंगी तुम्हे।
रख लुंगी अपने पास।
क्योंकि जाना तो तुम्हे है ही,
पर
साथ भी तो चलना है तुम्हे।
साथ रहना है
मुझमें
मेरे होकर।
©आशिता दाधीच

Wednesday, September 21, 2016

Amitabh Bachchan

अमिताभ बच्चन

कौन हो आप।

अभी अभी पिंक फिल्म देख कर लौटी, हमेशा शांत रहने वाले भायंदर के मैक्सस मॉल में, आज पहली बार मैंने सीटियां बजते सुनी, तालियां गूंजते देखी, मैक्सस वो मॉल जिसमें मैंने कहानी भी देखी और बीएपास भी, रागिनी एमएमएस और क्वीन भी, भाग मिल्खा भी और हाउसफुल भी, रामलीला भी और रुस्तम भी। हमेशा शांत सा ऊंघता यह थियेटर आज नाच उठा,
और उसके साथ मेरा भी सर ऊंचा हो गया, औरतों के सम्मान की तरफ दिए गए इस उपहार के लिए।

शुक्रिया अमिताभ बच्चन, दीपक सहगल को जीने के लिए।

पर एक बात बताइये,

आप है कौन,
इंसान तो लगते नहीं, हमारी तरह रक्त मांस के बने, आज पच्चीस की उम्र के काम हमे थका ड़ालता है पर आप वक्त की आँखों में आँखे ड़ाल कर कैसे उसे पीछे छोड़े जा रहे है।
जब दीपक सहगल मॉर्निंग वॉक के दौरान hoddiee से मुंह ढंकती प्रोटोगोनिस्ट के चहरे से कपड़ा पीछे करके उसे मुंह दिखाने को कहते है तो अपने औरत होने पर गर्व होता है।

अमिताभ बच्चन
कौन हो आप।
वजीर वाले वो असहाय बुजुर्ग जो आखिरी में सबसे बड़ा सबल होकर निकला या तीन का वो बुजुर्ग जो कुछ न होकर भी सब कुछ कर गया, या कहानी की वो आवाज जो दिखी नहीं पर दिल में समा गई। या बुड्ढा होगा तेरा बाप का वो जवान जिस पर हर युवती दिल हार गई।

या फिर वो विजय और अमित जो अपने बाप को आँख मिला कर कहा सकता था "मैं नाजायज औलाद नहीं बल्कि आप नाजायज बाप हो"
वो निहायत ही दुबला पतला लड़का जिसे मैंने बचपन में दूरदर्शन की फिल्मों में देखा।
जो गुंडों के गोदाम में अकेला जा बैठा और उन्ही को पीट पाट के बाहर आ गया।
जो बंगला गाडी होने के बावजूद भी माँ के लिए तरस गया, माँ का न होना क्या है अपनी आँखों से जता गया।
जो अपने दोस्त वीरू का ऐसा रिश्ता ले कर गया कि आज भी हम पेट पकड़ कर हंस सके।
जो आजादी के बाद मुलभुत आवश्कयता से जूझता भारत का युवा था, जिसे सिस्टम के लिए गुस्सा था, जिसे बदलाव लाना था, जो बेहतर जिंदगी चाहता था, जो रोजमर्रा की तकलीफों से आजिज था।
जिसे माँ बहन और बीबी के काँधे पर सर रख जार जार रोना था, जो मजबूत भी था और मजबूर भी, जो दयनीय भी था और दयावान भी।
जो मोहब्बते का कड़क प्रफेसर था और बागबान का प्यारा सा बाप और बाबुल का ससुर।
कभी बेटे के लिए कभी बहु के लिए, जो बाबुल और विरुद्ध बन कर ड़ट गया,

तुम्हारे हथियार बदल गए
और आप मुख्यधारा में बने रहे
उसका केंद्र बिंदु बन कर

अब आप अपनी माँ का बदला लेने के लिए अग्निपथ पर चल कर पेट्रोल पंप नहीं जलाते, बल्कि बेटी की मौत का बदला लेने के लिए बादशाह बन कर एक पुलिस वाले को अपना वजीर बना कर दुश्मन को घर में घुस कर मारते है।

अब आप सुनसान राहो पर एक मसीहा बन कर नहीं निकलते बल्कि काला कोट पहनकर न सिर्फ पिंक लड़कियों बल्कि पूरी औरत जात के लिए लड़ जाते है।

गजब है आप
अद्भुत

वक्त के साथ चलकर कदम ताल मिला कर वक्त को पछाड़ते है आप।
कितना कुछ सिखाते है।

जो नव्या और आराध्या के बहाने खत लिख कर हमें जीना सिखाते है।
जो औरो बन कर सुपर हैंडसम से सुपर क्यूट हो जाते है।

थैंक यू अमिताभ बच्चन

हमे जीना सिखाने के लिए
हंसने की वजह देने के लिए
प्रेम सिखाने के लिए
दिल में ख्याल लाने के लिए
होली खेलने के लिए
दीवाली मनाने के लिए
बिल्ला नम्बर 786 बाँधने के लिए

अनगिनत बार जात पात धर्म से ऊपर उठा कर एक करने के लिए

शुक्रिया
अमिताभ बच्चन

आपके अरबो फैन में से एक
●आशिता

©आशिता दाधीच


Sunday, August 21, 2016

Olympics and Indian team

सिंधु, साक्षी तुम मत करना अपनी जीत हमारे नाम, अब्वल तो इसलिए क्योंकि हम उसके लायक ही नहीं है, दुसरा इसलिए क्योंकि तुम इनसे बहुत ऊपर हो। जब हमारी किसी एथलीट को मिट्टी खाकर पेट भरना पड़ा, तब हम कहा थे, शायद किसी आईपीएल को चीयर कर रहे थे। जब दीपा कर्माकर एक अदद कोच मांग रही थी, हम फिल्मों को सौ करोड़ी बना रहे थे। 
इससे भी पहले जब वो छोटे से कद का अभिनव कुछ साल पहले अकेला मैदान में डटा गोलियां चला रहा था, हम कही नहीं थे, ना इंडिया ना अभिनव चिल्लाने के लिए, तब तो ये देशभक्ति ठन्डे बस्ते में रखी थी। 
जब माथे पे वह मुकुट लगाये, अपनी मोहिनी सी मुस्कान से राज्यवर्धन चांदी के उस तमगे को चूम रहे थे, तब हम कहा थे। शायद टीवी के सामने राज्यवर्धन राज्यवर्धन चिल्लाते, पर उससे पहले जब वो पसीने बहा रहा था अकेला जूझ रहा था तब।
चलिये अभी की बात करते है एक मैच हार जाने पर सुपर साइना को बैग पैक करने की सलाह देने वाले, पिछले ओलम्पिक्स और कॉमनवेल्थ में कहा थे जब लड़की जुझ रही थी। अरे एक मैच तो फेडरर, जोको और राफा भी हार जाते है। 
सरदार सिंह, ध्यानचंद, धनराज को छोड़ कर हॉकी के किसी खिलाड़ी का नाम ही बता दीजिए, चलिये। फरहान अख्तर को मिल्खा सिंह मानने वालों जब हमारे हॉकी के लड़ाके चार बीन बैग और दो चेयर वाले कमरों में थे तब आप सब कहा थे।
साक्षी, सिंधु, मुझे शर्म आ रही है। 
आज हम सब तुम्हारे मैडल पर हक जमा रहे है पर उसके लिए बहते तुम्हारे खून, पसीने, दर्द और चीखों को न हमने कभी देखा ना सुना। 
मत दो हमे अपना मैडल, हम इस लायक नही है, ये तुम्हारा मैडल है लड़कियों।
जब हमें मैदान में तुम्हारे लिए हर बार वैसे ही जुटते देखो जैसा अपने फाइनल में देखा था, तब हमें मेडल दे देना, पर जब तक हम तुम्हारा हर पग पर साथ न दे, ये मेडल तुम्हारा है। 
क्योंकि ये जंग तुम्हारी थी, जिसे तुमने अपने दम पर जीत, हम तो महज स्वार्थियों की तरह आ गए आखिरी मौके पर तुम्हारी जीत का हिस्सा मांगने और उस पर अपना हक जताने। 
हमे माफ़ कर दो दुति चाँद, हम कुछ नहीं कर पाए, दीपा माफ़ कर दो हमे। अभिनव, गगन, सॉरी तुम्हे कुछ न देने के लिए, और फिर भी ठीकरा तुम पर फोड़ने के लिए। 
अभिनव, तुम सही हो उन विश्व स्तरीय सुविधाओं के बिना, उस महंगे खर्चे के बिना तुम सब जूझ रहे हो और यहां हम है तुम लोगो को वो प्यार तक नहीं दे पाते, न जाने कितनी डोमेस्टिक इंटरनैशनल लड़ाइयों में तुम्हारे साथ खड़े नहीं हो पाते। शायद, किसी और मुल्क में पैदा होते तुम सब तो अब तक बीस तमगे तुम्हारे सीनों पर होते।
माफ़ कर दो हमे, हमारे स्वार्थों के लिए। 
-आशिता दाधीच

Saturday, August 20, 2016

Sindhu, Girls and Olympics

वाह क्या खेली है सिंधु एक दम जबरजस्त मजा ही आ गया, क्यों क्या कहती हो जी? चाय की चुस्की लेते हुए शर्मा जी ने अखबार को फड़फड़ा कर बीवी से कहा।
हाँ जी बिलकुल, मिसेज शर्मा ने सर हिलाया।
मैं तो कहता हूँ देश में खेलों का इंफ्रास्ट्रक्चर बढाना चाहिए, हर बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर उसे उसके लायक पी टी टीचर बचपन से मिलना चाहिए, तब देखना हर घर से एक सिंधु निकलेगी। शर्मा जी चहक रहे थे।
तभी, बगल के कमरे से लगभग दस बारह साल की सुपेक्षा दौड़ते हुए आई।
पापा पापा, मुझे भी रैकेट दिला दो ना, मैं भी सिंधु दीदी जैसी बनूँगी। शर्माजी का चेहरा यो हो गया जैसे आसमान से गिर पड़े, नहीं बेटा, ये सब अमीरों के चोचले है, अपन तो मध्यमवर्गीय है, तुम पढाई पे फोकस करो डॉक्टर बनना है ना तुम्हे। शर्माजी झेंप छुपाते हुए मुस्काए। 
और नन्हीं सी बेटी ये सोचते हुए उलटे पाँव लौट गई कि जब हर घर से सिंधु निकलनी चाहिए तो इस घर से क्यों नहीं?? 
मध्यमवर्ग बहाना था या एक लाचार बाप की कुछ न कर पाने की बेबसी थी या अखबार पर तालियां पीटना महज ढोंग था या सिस्टम से दबे कुचले हारे संसाधनों के अभाव के दर्द को जानते दिल का दर्द।
©आशिता दाधीच 




PV Sindhu's letter

जनाब मेरा नाम पुसरला वेंकट सिंधु है और मेरी जाती खोजने का कष्ट मत कीजिये। नीली वर्दी पहनती हूँ, सीने पर तिरंगा लगाती हूँ, घुटनों से ऊँची स्कर्ट पहनती हूँ और माथे पर बिंदी भी लगाती हूँ, भारतीय हूँ मैं और इंडियन होना ही मेरी जाती है. 
ना मैं दलितों का झंडा उठाती हूँ और न सवर्णो की झंडाबरदार हूँ, मुझे इन सब से दूर ही रखिये। 
कोर्ट में पसीना बहाते वक्त ना मैंने बाबा साहेब आंबेडकर का और ना ही महात्मा फुले का फोटो लगाया था, हर बार सर्विस के वक्त ना ही मेरे गोपी सर ने कहा था कि, सिंधु खेलों क्योंकि तुम्हे उस मनुवाद का बदला लेना है. कर्ण को सूत पुत्र कहकर अर्जुन की बराबरी न करने देने वाले समाज को ललकारना है. गोपी सर ने कहा था कि बस खेलो खुद के लिए खेलो और देश के लिए खेलो, जीने के लिए खेलो. 
मैं खेलती हूँ क्योंकि मुझे सिर्फ खेलना ही आता है, मैं सवर्ण भी नहीं हूँ, क्योंकि मैं इस लिये खुद को सर्वश्रेष्ठ नहीं मानती की मैं किसी वेदपाठी परिवार में पैदा हुई हूँ, बैडमिंटन को अपनी पूंजी इसलिए नहीं मानती क्योंकि मेरी जाती मुझे रैकेट उठाने की इजाजत देती है, मैं बैडमिंटन को अपनी पूंजी इसलिए मानती हूँ क्योंकि मैं इससे प्यार करती हूँ. अपने खेल से मैं किसी याज्ञवल्क्य, दधीचि या अगस्त और अत्रि की परम्परा को आगे नहीं बढा रही, मैं बस अपने उस सपने को आगे बढा रही हूँ, जिसे बचपन से मेरी कोरी मासूम आँखों ने देखा था... माफ़ कीजिये मुझे, आपकी इन छोटी जाती धर्मों की सोच से, मैं इन सबसे ऊपर हूँ क्योंकि मैं सिंधु हूँ, सिंधु मतलब सागर समुद्र। हाँ मैं अथाह हूँ, मेरे खेल में गोते लगाइये, मेरी जाती खोज कर मेरे देश को छोटा मत कीजिये। 
- आशिता दाधीच
While India was rooting for PV Sindhu, Andhra Pradesh and Telangana were googling her caste -


Sunday, May 1, 2016

An Indian

महाराष्ट्र दिवस की शुभकामनाए? ये क्या आशिता जी आप तो राजस्थानी हो न? हाँ हूँ, लेकिन पिछले पांच सालों से इस शहर में हूँ, इसकी आबोहवा में सांस ली है, इसके बाजारों, सड़कों और मंदिरों को अपना माना है, लोगों को अपना माना है, आखिर इस शहर ने पांच साल पहले आई हुई एक अंजान लड़की को बड़े प्यार से गले लगाया था, इतनी कृतञता तो मेरी भी बनती है. मेरे लिए यह 'छोरी' से 'मुलगी' होने के यात्रा है, लेकिन इस यात्रा में मैं मुलगी जरूर हुई हूँ परन्तु छोरी भी जरूर रही हूँ. 
यह एक संवाद आज तब हुआ जब अपनी आदत के मुताबकि मैंने मोबाइल के सभी कॉन्टेक्ट्स को 'महाराष्ट्र दिवस' की शुभेच्छा भेजी थी. इस शहर से या यूं कहूं मराठी से मेरा पहला साबका तब पड़ा था जब कॉलेज के पहले दिन एक सहपाठी ने मुझ से पूछा था, "तुझा नाव काय रे" उस दिन कुछ समझ नहीं आया, लेकिन ये समझ आया था कि कोई तो है, जो मेरे बारें में जानना चाहता है.
नटरंग मेरी पहली मराठी फिल्म, जो कॉलेज के मूवी एप्रिसिएशन लेक्चर के दौरान देखि थी, उस दिन तो काला अक्षर भैंस बराबर ही रहा, पर, आप मराठी फिल्में हिंदी पर मेरी प्राथमिकता, नटरंग के चलते ही बनी.
कैरियर की शुरुआत मेट्रो सेवन डेज, और स्टोरी के दौरान एक मालन से पता पुछना, और उसका हिंदी से न समझा पाना लेकिन दूकान छोड़ के आगे तक आना और मुझे मेरी मंजिल दिखा देना, इस अंजानी भाषा के थोड़ा और करीब ले आया.
ट्रेन का पुढे चला, लवकर चला, हमेशा मेरे लिए एक पहेली था, आखिर इन्हे 'लव क्यों करना है ट्रेन में?' ये सवाल आज बस हंसा भर देता है.
गणपति के वो मोदक और गलियों में बप्प्पा मोरिया और गोविंदा कर के बरबस बैंड पर नाच देना, अर्थ न समझने के बावजूद, सुख कर्ता, दुःख हर्ता बाय हार्ट याद कर लेना, और फिर जय गणेश जय गणेश देवा की जगह सुख कर्ता दुःख हर्ता गुनगुना शुरू कर देना, याद भी नहीं कब अचानक बरबस इस अंजानी भाषा ने मेरे शब्दकोष के न जाने कितने शब्दों को स्थानांतरित कर दिया।
न जाने कब गधेरों, बांदरो की जगह, मेल्या, कुत्र्या ने ले ली. ना जाने कब नव समवतरसर की शुभकामना गुड़ी पाड़वा की शुभेच्छा बन गयी. जन्मदिन मुबारक, वाढदिवसाच्या हार्दिक शुभेच्छा हो गया. आओ सा, बिराजो, को न जाने कब बस ना हे घे, बना लिया खुद भी याद नहीं।
मालवणी में रिपोर्टिंग करते हुए, अदब से सर ढंक कर आदाब कहना, और टर्मिनल टू पर वन पीस में हाय कहना, यह दोनों देन मुंबई की ही तो है. वीक ऑफ़ को विरार कोलीवाड़ा घूमना और संडे नाइट को मरीन ड्राइव के चक्कर लगाना यह रंग मुंबई के ही तो है. 
अभी थोड़े दिन पहले मम्मी, मौसी के पास इंदौर गई थी, और उनका पहला ही सवाल था, टीवी में कुछ नेताओं के भाषण सुनते है, अपनी लड़की उस शहर में अकेले कैसे रहती होगी, और माँ ने मुस्कुरा कर कहा उसी तरह जैसे माँ की जगह बेटी मौसी के पास रह जाती है.
हाँ धरती धोरा री, आ तो सुरगा ने सरमावै आज भी रोंगटे खड़े कर देता है लेकिन, गरजा महाराष्ट्र माझा भी तो रोमांचित कर देती है.
बचपन में हमारे स्कूल में प्रार्थना के बाद एक नारा लगवाया जाता था, जय राणा प्रताप की, जय शिवा सरदार की. हाँ बिलकुल जितनी श्रद्धा से राणा के आगे सर झुकता आया है उसी स्नेह से शिवा को नतमस्तक होती हूँ, जो उबाल गढ़ चित्तौड़ को देख कर आता है वहीं जज्बा सिंधुदुर्ग भी तो दे जाता है.
तो फिर क्या अंतर है दोनों में, है तो दोनों मेरी मां और मौसी ही न!!
जय राणा प्रताप की, जय शिवा सरदार की
- आशिता दाधीच





Wednesday, March 30, 2016

Being a Rajasthani

 अच्छा आप राजस्थान से है, मारवाड़ी होंगे आप? नाह मेवाड़ी हूँ। अच्छा अच्छा पर जैन होंगे। नहीं जनाब ब्राह्मण हूँ। अच्छा पर सरनेम बड़ा अजीब है आपका। वहां काफी कॉमन है। कहीं आप उनकी रिश्तेदार तो नहीं जिनकी हड्डियां देवता ले गये थे। वो दस हजार साल पहले की बात है जनाब मैं उनकी महज वंसज हूँ। तो क्या आशिताजी आप भी अपनी हड्डियां दे देंगी किसी को....
उफ़्फ़ न जाने कैसे कैसे सवाल पर बिना किसी से दुर्भावना रखे आज राजस्थान दिवस के मौके पर कागज पर उतार रही हूँ वह सब जो एक राजस्थानी ओढ़ता बिछाता है।

ओह्ह आशिताजी आप पानी पी रही है, आपकी स्टेट में तो पानी होता ही नहीं है। हमने सुना है ऊंट सात दिन में एक दिन पानी पीटा है।
क्योंकि वो ऊंट है मेरे भाई मैं इंसान हूँ।

रे आशिताजी आपकी माताजी तो 18 किलोमीटर दूर से पानी लाती होंगी ना। हमने टीवी में सुना है
कम ऑन रायसागर झील, एशिया की सबसे बड़ी झील मेरे जिले में है।

आपने मुम्बई आने से पहले कभी गेंहू खाये थे, राजस्थान में तो कुछ उगता नहीं है न।
हाँ जनाब बस मिट्टी खाई है इतने साल।

आपके यहां की वो एक औरत बड़ी बहादुर थी, क्या नाम है लक्ष्मी बाई।
माफ़ कीजिये वो यूपी की थी।

अच्छा हाँ वो पद्मिनी जो जल मरी, पर सूइसाइड से बेहतर होता वो लड़ाई करती।
मेरे काका, जब किले में ना अन्न था ना असलहा तो कब तक लड़ती वो,
और राजस्थान पद्मिनी से इतर शादी के अगले दिन गर्दन दान करने वाली हाड़ी, पन्ना, कर्मावती का भी है।

हाँ सारे राजस्थानी बस लड़ाकू ही है।
भगवान के लिए मीरा, रामदेव शाह पीर, गोगाजी, तेजाजी, मांगलिया जी को पढ़ने का कष्ट करे।

हम राजस्थान आएँगे घूमने अगली सर्दी में दो दिन में हो जाएगा ना।
हाँ मैप तो देख ही लेंगे आप दो दिन में वरना तो अकेले सोनी जी की नसिहा एक दिन और आमेर एक दिन ले लेंगे।

आपके गाँव में कोई बड़ा तीर्थ नहीं है, अशिताजी।
खाटू श्याम, जोगनिया, रामदेवरा, जीण, नाथद्वारा शाहपुरा, बताओ कौनसा तीर्थ चाहिए, भर भर के है हमारे पास।

अच्छा आपके उधर खाने पीने को कुछ अच्छा मिलता है क्या?
मेरे काकाजी पुरे देश में सिर्फ ढाई इंच के रसगुल्ले वहीँ बनते है हमारी मावा कचौरी, हमारी राब, दाल दोक्ला का कोई जोड़ नहीं।

आशिताजी आपको कितने बच्चे है?
मेरी शादी नहीं हुई अभी आई एम् टू यंग।
पर राजस्थान में तो बचपन में शादी हो जाती है हमने बालिका वधु में देखा ।
अच्छा, तो मेरी शादी भी वहीं देख लेना।

आपके वो प्रताप अच्छे फेमस हुए।
जनाब महाराणा प्रताप बोलिये, और दुर्गादास राठौड़, अमर सिंह, सांगा, उदय सिंह, बप्पा रावल भी बहुत फेमस है, जरा जीके दुरुस्त करके आइये।

अच्छा आपने मुम्बई आने से पहले पेड़ देखे थे, हरयाली देखी थी।
भाई रुला मत, अरावली की बेटी हूँ, हमारे माउंट आबू में बर्फ पड़ती है, घने जंगल है।


अच्छा आपके वहां कोई क्लासिकल डांस होता है, कत्थक कुचिपुड़ी टाइप।
योट्यूब एक चीज होती है उस पर गुलाबो को देखिये, फिर भी प्रश्न पिपासा शांत न हो तो गैर घूमर पनिहारी देखे।

तो क्या क्लासिकल सांग भी होते है।
क्लासिकल फ्लासिकल तो पता नहीं पर हिचकी, चिरमी और कौवे पर भी होते है, इंसानो की बात तो लीजिये ही मत।
आप बिजनेस नही करती आप तो राजस्थानी हो।
करती तो हूँ, खबरे बेचने का काम, और क्या करूं।

आपके पैरेंट्स ने आपको मुम्बई कैसे आने दिया, आप तो राजस्थानी हो।
राजस्थानी हूं भाई बांग्लादेशी नहीं हूँ, वो आ जाते है तो मैं क्या चीज हूँ।

(एक भी प्रश्न कपोल कल्पित नहीं है, पिछले पांच साल में इन सब सवालों के जवाब दिए है।)

Friday, March 4, 2016

Mirza Galib

व्यंग पर आजमाया पहला हाथ

ग़ालिब की मौत

अरे ग़ालिब मियाँ क्या बात है, कुछ हैरान परेशान से नजर आ रहे हो, अपने दिल की कहों।

क्या कहूँ मेरे मौला, बस सोच रहा हूँ, मेरे शेर कैसे होंगे, इतनी मेहनत से लिखा था उन्हें अब जमीं पर कोई नामलेवा भी होगा या नहीँ उनका, कोई दोहराता भी होगा उन्हें क्या?

हाहाहा दुःख ना करों ग़ालिब मियाँ तुम्हारे ढ़ेरों आशिक़ ज़िंदा है अभी और कायनात के आखिर तक रहेंगे, पर...

पर क्या मेरे मालिक, हुकुम कीजिए...

तुम्हारे सच्चे आशिक तो एक से एक है, पर ये मुआं इंटरनेट, न जाने क्या क्या होता है, क्या और एक वो मरजाना व्हाट्सएप पता ही नहीं चलता कौन तुम्हारा मेहबूब है और कौन नहीं। छोडो इन बातों को ग़ालिब जाओ सोजाओ,

पर मौला

ग़ालिब, मेरे हुकुम की तामील हो।

(अगले दिन सुबह) ग़ालिब तुम तो कहते थे, मौत का एक दिन मुअययन है नींद क्यों रात भर नहीं आती, तो इस रात क्यों नींद नहीं आई तुम्हे मेरे नेक बन्दे।

मालिक मैं आपका बन्दा हूँ न तो अपनी खुदाई को दीदार करा दो, जर्रे को इसके मेहबूब से मिला दो, मुझे जमीन पर जाना है या मेरे मालिक,

ए मेरे बन्दे ऐसी जिद न कर इसमें तेरा ही नुक्सान है,

न मालिक,

ठीक है, ये ले मोबाईल नामका भयानक यन्त्र इसमें है मुआं फेसबुक और व्हाट्सएप, इससे अपने आशिकों को खोज और जिससे मिलना चाहे मिल ले। जा....

और ग़ालिब की जैसे आँख बन्द हो गयी, आँखे खुली तो मरीन ड्राइव पे खड़े थे, या मेरे मौला क्या जन्नती नजारा है, पहले मिला होता तो ये गुलाम बीसियों और शेर लिख लेता।

अचानक ग़ालिब का मोबाइल भनभनाया किसी दीपा दीक्षित ने ग़ालिब का फोटो और चार शेर फेसबुक पे ड़ाले थे, बस ग़ालिब ने दिल ने चाहा और प्रकट हो गए दीपा के सामने,

हू आर यू ओल्ड मैन,

मोहतरमा हम कलमकार है, ग़ालिब के बारे में बात करने आए है,

ओह ग़ालिब ही इज ए वैरी कूल गाई, आई तोह जस्ट लव हिम्, मुव्वह्ह् ग़ालिब मुवाह...

(लाहौल विला कुव्वत ये मोहतरमा तो हमारी इज्जत लूट लेंगे) ग़ालिब फुसफुसाए, मोहतरमा आपने ग़ालिब का इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब, जो लगाए न लगे, जो बुझाए न बुझे शेर सुना है...

होहोहो यू आर वैरी फनी अंकल, ये तो एसआरके ने कहा था दिल से में मनीषा कोइराला को..

हाय अल्लाह ये मुवां एसआरके कौन है, दोजख में जाएगा ये, हमारे शेर चुराके अपने नाम पे चलाता है, अब तो हम यही रहेंगे जमीं पर, अपने शेरों को चोरो से बचाएंगे।

अचानक किसी व्हाट्सएप ग्रुप से घनघोर ग़ालिब ग़ालिब सुनाई दिया और मोबाइल की स्क्रीन जगमगाई,

वाह मेरे आशिक आ गए, देखू तो क्या कह रहे है,

और ग़ालिब ने चैट पढ़ना शुरू किया,

जब से देखा है तुझको नींद नहीँ आती, ग़ालिब तू औरत है या नींद भगाने की गोली।

लिल्लाह ये शेर हमने नहीं लिखा, ग़ालिब की आत्मा रो पड़ी।

बीबी मेरी रेशन की डोरी, मैं उसका जुगनू, पर डर जाऊ जब जब उसको देखूं - चचा ग़ालिब ने कहा है

हाय अल्लाह, हमारी बेगम ऐसा शेर देख लेंगी तो हमारे भूत को भी मार देंगी। चलो तीसरा मैसेज देखूँ, क्या कहता है...

ग़ालिब ने कहाँ है - चला तो था मैं अकेला ही घर से मोहब्बत की तलाश में भूखा प्यासा, रास्ते में गन्ने के जूस की दूकान मिली और रस पीके ही लौट आया।।

या मेरे खुदा, कैसे कमजर्फ लोग है ये, क्या क्या भेज रहे है, मेरे नाम पे, दोजख में जाएंगे सारे।

अचानक मोबाइल फिर झंझनाया, फेसबुक पर ग़ालिब फैन ग्रुप नजर आया, एडमिन ने शेर ड़ाला था, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक, ग़ालिब का आत्मा नाच उठी, झट से जा कर एडमिन को धर लिया और कहा

तू खुदा का सच्चा बन्दा है, ग़ालिब के और शेर सुना,

खुदा कर बन्दा बोला रुक, ग़ालिब की शायरी का सॉफ्टवेयर खोलने दे।

गोया ये क्या बला है?

देख पंटर किसी को बोल मत बट अपन इधर से शेर कॉपी करके पेस्ट करता है, सबको, ग़ालिब कूल है यार, उसका फैशन कभी नहीं जाता और इम्प्रेशन भी मस्त पड़ता है।

लाहौलविलाकुव्वत, ये सब देखने सुनने से पहले मैं मर क्यों नहीं गया, अरे हाँ, मैं तो मरा हुआ ही हूँ, अच्छा हुआ मैं मर ही गया, या मेरे मौला ये इन रोज रोज एक नई मौत मारने वाले आशिकों से मुझे बचा, मुझे वापिस बुला के मालिक, रहम कर।
©आशिता दाधीच
#AVD

Sunday, February 21, 2016

Valentains day

मेरा आज का ताजा अनुभव संस्मरण रूप में आप सब के लिए


वैलेंटाइन डे
प्यार का त्यौहार, हेहेहे, पहले ही गिरगांव आग के चलते ऑफिस से निकलने में घंटे भर की देर हो गई थी, और फिर दादर आकर तीन ट्रेन छोड़नी पड़ी, वैलेंटाइन डे का क्राउड जो था, चौथी ट्रेन पकड़ ही ली, वह ट्रेने जो कल तक भयानक बदबू मारा करती थी, आज भयानक तरह के चित्र विचित्र परफ्यूमों की खुशबू से महक रही थी, उसके अलावा हर तरह के फूल का बूके, अजीब सी दिखने वाली पेंसिल जिनमे बड़े बड़े दिल बने थे, फुटबॉल के आकर के गुब्बारे दिल के आकार में, मैं तो दिन भर मेक इन इंडिया से थक गई थी, कोने में दुबक कर खड़ी हो गई, पास ही एक महिला थी, जामुनी रंग के अजीब से वन पीस में, देख कर ही पता चल रहा था किसी से उधार लिया है, और मैडम उसे सम्भाल भी नहीं पा रही है, दूसरी तरह एक मैडम दादर, बांद्रा अँधेरी हर जगह ट्रेन रुकने पर बैग से निकाल कर डियो लगा रही थी, तीसरी को शायद दो बॉय फ्रेंड थे क्योंकि पहले फोन पर मिलने को धन्यवाद दे रही थी और दुसरे फोन पर टाइम से मलाड में पिक करने को कह रही थी, हर पांचवी महिला ने अपने मोवाइल का स्पीकर खोल कर तेज आवाज में कमली कमली और जादू है नशा है के गाने चला रखे थे, ये बताने को शायद कि वे बड़े रोमांटिक मूड में है कुछ इतने नशे में थी कि खड़े भी नहीं हुए जा रहा था और इस बीच में कल की स्टोरीज, मेक इन इंडिया और हेमा की चिंता में घुली घुली बार बार मैसेज चेक करके गिरगांव अग्नि काण्ड की अपडेट ऑफिस को दे रही थी, अचानक एक भयंकर रूप से खुशबू मारती हुई लड़की मेरे पास आकर खड़ी हुई, उसे शायद मुझे देख कर आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतने साधारण कपड़ों उलझे बालों और बिना मेक अप में क्यों हूँ, बोरीवली आते आते वो पूछ बैठी, आप भी मरीन ड्राइव गए थे, मैंने कहा नहीं, ऑफिस, पर आज तो सन्डे है वो अचकचाइ। मेरा प्रोफेशन ही ऐसा है आई वर्क ऑन सन्डे, मैंने कहा। तो आपने वैलेंटाइन डे कैसे मनाया उसने कहा आपको बॉय फ्रेंड नहीं है क्या, उसकी आवाज में मेरे लिए बेहद दुःख टपक रहा है। उसे शांत करने के लिए मैंने कहा हम तो दिवाली भी नहीं माना पाते है, हमारे प्रोफेशन में चलता है। पर दीदी दिवाली तो बुड्ढे लोगो के लिए है, वी डे की डेट तो होनी ही चहिये नहीं तो कितना अक्वार्ड लगता है, आज का ही तो एक दिन गई जब हमे लव्ड फील होता है... भायंदर आने वाला था, मैं आगे बढ़ गई, पर क्या सचमें लव्ड फील करके के लिए दिन होते है, जब माँ बिस्तर में लाकर दूध देती है, बहस करने के बाद भाई सॉरी कहता है, गहरी नींद में सोता देकर पा के कहकर कि मेरी बेटी थक गई होगी, पैर दबाते है, तब लव्ड फील नही होता?

Friday, February 5, 2016

The girl

उलझी सी वो पगली सी लड़की,
कौन है अपना 
कौन पराया नहीं जानती।
अपनों को खोती, 
गैरों से मिलती, 
चोट खाती
बार बार गिर जाती 
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
कितनों के आंसू पोंछा करती
हर रात खुद से तन्हा रोया करती
कुछ पाने को 
फिर ख्वाब संजोती
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
खुद ही खुद पे इठलाती, 
बाल बनाती 
काजल लगाती
फिर खुद के पोंछ के सिंगार जोगन सी हो जाती।
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
किसी की एक झलक की खातिर 
मीलों तक चल के जाती, 
थोड़ी सी अवहेलना पर मुंह फुला के बैठ जाती,
गमों की गंगा पल में पी जाती।
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
महलों से भी खुश न होती
सूखी रोटी पर रीझ जाती
दुनिया की हर रीत निभाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
चिड़िया सी गुन गुन गाया करती
दुनिया की रस्मों से टकराती, 
कुछ बदलने की कसम उठाती
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
एक पल सब कुछ पाने को लड़ जाती
दूजे सब सब लुटा देने को जुट जाती, 
पहाड़ों को सह जाती पर कंकड़ से डर जाती 
उलझी सी वो पगली सी लड़की। 
सारी दुनिया को दोस्त बना कर 
फिर भी तन्हा रह जाती, 
उलझी सी वो पगली सी लड़की,
उलझी सी वो पगली सी लड़की.... 
©आशिता दाधीच 
#AVD

Thursday, February 4, 2016

The Time.

क्या दौर था वो जब हुआ करते थे हम करीब
फिर आया वो दौर जब से न मिले है हम
ना बोलते है हम
क्या गलत था
मैं
तुम या
हमारे अहम
कई बार चाहा कि गिर जाएँ ये दीवारें
तोड़ दी जाए बर्फ की वह दिवार
पर हिम्मत ही ना हो पाई कभी
और यह भी लगा कि शायद
तुम्हे ही नहीं पसंद मेरा साथ
नहीं तो करते तुम भी कोई पहल
तुम्हारा साथ
जो था मेरे जीवन की सबसे अमूल्य थाती
तुममे मेरा बेस्ट फ्रेंड भी था, पिता भी भाई भी,
और तुम जैसा ही चाहती थी मैं अपने जीवन का साथी,
कैसे समझाऊ तुम्हे कितने ख़ास हो तुम,
दिल के कितने पास हो तुम,
मत पूछो मुझसे कैसी हूँ मैं,
पर हर दस पंद्रह दिन में जता दिया करों
कैसे हो तुम,
यह जानना तो हक़ है ना मेरा
क्युकिँ एक दौर में कहते थे तुम
मैं सबसे करीब हूँ तुम्हारे,
मुझे खुश देखना चाहते हो तुम.
तो बस मुस्कुरा दिया क्रौन एक बार मेरी ओर
हो जाएगा करूंगी मैं ठीक,
जिंदगी की भाग दौड़ के बीच
उतार चढाव और थकान के बीच.
शायद हमारी किस्मतों में नहीं है कोई अंजाम
पर छोड़ा गया जिस मोड़ पर सबकुछ वह भी तो नहीं था उतना ख़ास.
एक याद एक कसक तुम्हारे वजूद की आज भी है मेरी साँसों के दरमियान
हर ख़ुशी में हर गम में तेरी रिक्क्ता का वह एहसास।

Monday, January 25, 2016

The Journey

और आखिरकार 2016 की 16  जनवरी को मेरे बचपन का दूसरा सपना पूरा हुआ, मेरे बच्चे पहली बार विदेश जा रहे थे, बच्चे हाँ मैं उन्हें अपना बच्चा ही मानती हूँ, मासूम भोले और हमेशा मुझे ख़ुशी देने वाले मेरे माँ और पा।
चार महीने से तैयारियां चालू थी, पासपोर्ट बनाना फिर टिकट लेना, इस बीच यात्रा के लिए कोई एजेंट खोजना, होटल बुकिंग, कपड़े जूते खरीदना।
जैसे जैसे यात्रा की तारीख पास आ रही थी, दिल धड़क रहा था, जोरों से, क्या होगा, कैसे होगा। एक गर्व भी था कि जो अब तक मेरे बारें में चिंता करते थे, मैं किसी बुरे इंसान से ना बोलूँ, किसी मुसीबत में न फंस जाउ, अब उनके बारें में यह सब मैं सोच रही थी, शायद वह मुझे अपने बड़े होने का पहला एहसास था।
खैर अपने एविएशन रिपोर्टर होने से एक शान्ति थी कि कुछ हुआ तो मैं सम्भाल लुंगी, दूसरी हिम्मत थी उस दुबई के एजेंट की। वो एजेंट जो गुजराती है, और गुजराती लोगो से मेरी पटरी भी अच्छी खासी जमती है, बची कूची हिम्मत एयरपोर्ट के कुछ सोर्सेज ने दे दी।
इस बीच एक और चीज जो मुझे अजीब लगी वह थी पापा की बिना एविएशन के बारें में जाने एयर इंडिया पर विश्वास वह भी महज इस लिए क्योंकि वह राष्ट्रीय एयरलाइन है, बरहाल मैंने उनका टिकट एयर इंडिया का ही लिया।
उस दिन जब टर्मिनल पर उन्हें छोड़ा तो साँसे जैसे रूक सी गई, एक सोर्स को इशारा किया कि कोई दिक्कत हो तो इन्हें अटेंड करना, एयर इंडिया पीआर टीम के अर्पित भी दो बार फोन कर चुके थे उनकी कुशलता जानने के लिए, बरहाल पा ने अंदर जाके हाथ हिलाया और मुझे जाने को कहा, वैसा ही लगा मुझे जैसे माँ अपने बच्चे को पहली बार स्कूल भेजते हुए सोचती है जबकि ये दोनों देश के 17 राज्य घूम चुके थे, मैं डर रही थी, शायद इसलिए क्योकि मुझे खुद के बड़े होने का घमण्ड हो गया था। यह भी पता था कि ये खुद्दार लोग किसी की मदद नहीं लेंगे हर बात से निबट लेंगे।
बरहाल 25 की सुबह आठ बजे ये लोग लौटे, घर आए, संयोग से मुझे जल्दी निकलना था तो ज्यादा बात कर नहीं पाई, कुर्ला आना था, बडोदरा में डिटेन हुए लड़कों की फैमिली का इंटरव्यू करने के लिए और चिंतन की भी तो पेशी थी।
बस इतना ही पूछा यात्रा कैसी रही।
तो फिर पा बस शुरू हो गए,
एयरपोर्ट बहुत सुंदर है, दुबई के से भी सुंदर, सब अजन्ता एल्लोरा जैसे बने है, कोई इंडिया के बारे में ना जानता हो तो भी जान जाएगा। काउंटर पे भी ज्यादा वक़्त नहीं लगा, झट पर सील ठप्पे हो गए, सुरक्षा जांच के नाम पे भी हमें परेशानी नहीं हुई। एयर इंडिया काउंटर पर तो जाते ही बोर्डिंग पास मिल गया। वीजा पे थोड़ी लाइन थी और एक घंटे वेटिंग रूम में बैठे पर घोषणा होने से आसानी रही। बाद में बस से हम फ्लाइट तक गए,
फ्लाइट बहुत सुंदर थी, सीट पर टीवी सेट थे, अटेंडेंट बहुत व्यवहारीक थी, अच्छा समझा रही थी, बार बार खाने पीने का भी पूछ रही थी, खाना बड़ा स्वाद था, एक दम घर जैसा, दाल चावल, सब्जी रोटी।
वहां भी लोग अच्छे थे, कितनी शांति थी, कोई ठग नहीं, और खूब स्वच्छता, बड़े रोड, सुंदर इमारते और कोई गुंडागर्दी नहीं, ऐसा लगा जैसे ये कोई दुनिया ही दूसरी है।
वापस आते हुए फ्लाइट उतनी सुंदर नहीं थी, बैक सीट पे टीवी काम नहिं कर रहे थे पर था भी तो रात का वक्त, जाते ही खाना दिया होस्टस मैडम ने, जो अच्छा था, और फ्लायट हमें बीस मिनट पहले मुम्बई ले आई, बस और क्या चाहिए।
हाँ आते वक्त ऑटो वाले ने मीटर से आने को मना किया और डेढ़ सौ रूपये मांगे यह कहकर की वो दो घंटे से लाइन में लगा है उनकी मेहनत है, पर हमने नहीं दिए हम मीटर से ही आए।

Sunday, January 17, 2016

Marathon

After covering today's Marathon wrote this poem

जिंदगी की मैराथन दौड़ रही हूँ मैं।
कुछ पा जाने को
काफी कुछ पीछे छोड़ देने को
दौड़ रही हूँ मैं।

किसा का दोस्त बन जाने को
किसी की दुश्मन हो जाने को
अपना बनाने और बिछड़ जाने को
दौड़ रही हूँ मैं।

वो मेरा सबसे प्यारा साथी था
उसी के साथ शुरू की थी दौड़ मैंने
पर ये क्या वो आगे निकल गया
हाथ हिलाकर टाटा करके
बिना एक बार मुड़ के देखे निकल गया वो।

और मैं रह गई अकेली पीछे
किसी नए को अपनाने की कोशिश में।
कुछ आंसू पी जाने
और मुस्कान बंटोरने की कोशिश में।

क्योंकि अब दौड़ रही हूँ मैं।

पर यह क्या
मेरा वो साथी जमीन पर पड़ा है।
खून बह रहा है उसकी नाक से
हांफ रहा है वो
पर मैं रुक नहीं सकती।

क्योंकि दौड़ रही हूँ
मैं
अपनी मैराथन और यहां
नहीं कर सकते नियमों का
उल्लंघन।

मेरा वो साथी पीछे छूट गया
पता नहीं ज़िंदा भी बचा
या मर गया
पर रो नहीं सकती मैं।

क्योंकि मैं दौड़ रही हूँ अपनी मैराथन।


धुप आँखों में घुस कर आंसू निकाल रही है।
सामने धुंधला है सब कुछ।
कुछ नहीं दिखता अब आगे।
मेरे हमराही मेरे पैर भी तुले है
अब साथ छोड़ने को।
सांस भी जैसे निकल जाना चाहती है शरीर का पिंजरा तोड़ कर।

पर
दौड़ रही हूँ मैं।

क्योंकि यह मैराथन है
और यहां रुकने के नियम नहीं है।

पर अब गिर गई हूँ मैं।
पगतलियों से खून की गंगा निकली है
क्या अब कभी चल भी पाउंगी मैं?

पर कैसे रुक सकती हूँ मैं
यह मेरे जीवन की मैराथन है
और जीतना है मुझे इसे।

न जाने वो यकायक कौन आया।
लडखडाती मुझको सम्भाला
थोड़ा सा पानी पिलाया।

कही ये वो तो नहीं
जिसके हाल पूछे थे मैंने पिछली बार

खैर रुक नहीं सकती मैं
कहने को
अब
धन्यवाद।

दौड़ रही हूँ मैं


लगता है खत्म हो गई है धरती
बस मैं ही हूँ अम्बर में व्यापी।
न पास के किसी की खबर
न दूर के अपनों का गम
अब बस कुछ याद नहीं

बस दौड़ रही हूँ मैं

न आगे कुछ दिखता है
न पीछे मुड़ते बनता है

अब
बस दौड़ रही हूँ मैं।
- आशिता दाधीच
©Ashita V. Dadheech