दस रूपये की चॉकलेट मंगाने के लिए भी मां को आवाज देने वाली
अब दस किलो आटा कंधे पर ढ़ो कर ला रही हैं।
एक नाख़ून टूट जाने पर रो रो कर घर सर पर उठा लेने वाली
दिल टूट जाने पर भी चुप साधे दौड़ रही हैं।
हजारों रूपये के कपड़ें लाने वाली
अब बीस बीस रूपये चार बार जोड़ कर जाँच रही हैं।
मन माफिक गुडिया के लिए डट जाने वाली
अब खुद गुडिया बनी लोगों के खेल से बचने की जुगत लगा रही हैं।
पापा की गोदी में छिप कर खिलखिलाने वाली
दुनिया से हर बार तनहा लड़ जा रही हैं।
दोस्तों में खुशियां लुटाने वाली
अब जोड़ तोड़ कर खुशियां मना रही हैं।
मनमांगी चीजें पाने के लिए अड़ जाने वाली
अब चीजों को छोड़ना सिख रही हैं।
मन मांगी मुरादों को अलमारी में छिपाने वाली
अब उपहारों को अबलों में बांटना सिख रही हैं।
बिन मांगे बिन चाहे सब कुछ पा जाने वाली
अब बिना कुछ चाहे बिना कुछ मांगे अपने दम पर पाना सिख रही हैं।
वो बड़ी हो रही हैं।
अपने सपने को जीने की खातिर
वो बड़ी हो रही हैं।
उस बेरंग कैनवास पर रंग भरने को
वो बड़ी हो रही हैं।
बडी भी हो रही है और अपने आसपास की तमाम गतिविधियो को जानने-समझने और उन्हे शब्दो में पिरोकर माला बनाने जैसी भी ......./ हर किसी के अंदर एक बच्चा होता है ... वह होता है तभी न कहते हैं बडे हो गये .... बडे होना बच्चे होना है .... और अपनी भावनाओ को संवारने उन्हे खूबसूरत बनाकर अतीत से वर्तमान को साझा कर हिसाब करना उनका शगल ... अच्छी रचना है अशिता ...अरे हाँ ये भी क्या खूब लिखा गया कि अच्छी रचना है अशिता .. अशिता भी तो एक रचना ही है .. :) :) बढिया खूब लिखती रहा करो
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