सिगरेट
क्या एश ट्रे थी मैं तुम्हारी
या सिगरेट थी मैं तुम्हारी।
जब मन चाहा
मुझे होठो से लगाया
जब चाहा हाथों से मरोड़ा
धुंए में उड़ाया।
जब दिल किया
मुझे दूर फेंका।
फिर झटक कर उठाया।
दोस्तों में भी बांटा।
कभी एक कश में खींचा
कभी घंटो तक सताया
कचरे में डाला
पैरों से रौंदा।
एश ट्रे समझ मुझको
हर गंदगी से नहलाया
मुझमें कचरा भर डाला
और झटके में बाहर भी फेंका।
जब चाहा डिबिया से निकला
उँगलियों से छुवा
मुझसे दुःख सुख भी बांटे
फिर अपनी निर्ममता दिखलाई।
कभी न पूछा मैं कैसी हूँ
मुझे क्या चाहिए
हाँ मैं सिगरेट थी तुम्हारे लिए
पर तुम भूल गए
सिगरेट पर भी ध्यान न दो तो
वो भी जला देती है
सूरज और आग की तरह
©आशिता दाधीच
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