“कहानी” इस फिल्म की कहानी और पटकथा ने मुझे जितना छुआ शायद ‘पा’ के बाद यह ऐसी दुसरी फिल्म होगी. आज फिल्म देखे चार दिन गुजर चुके हैं लेकिन फिर भी इसके दृश्य आँखों के आगे घूम रहे हैं. डाईलोग कानो में गूंजते से सुनायी देते हैं. इस फिल्म ने एक ऐसी प्यास जगाई है जो इसे बार बार देख कर ही मिटाई जा सकती हैं. “कहानी” पहली फिल्म हैं जिसके बारे में मैं अपने ब्लॉग और फेसबुक नोट्स में लिख रही हूँ. एक बेहतरीन कहानी, गजब का कसा हुआ निर्देशन, अद्भुत सम्पादन, बंगाल की मिट्टी की खुशबू लिये हुए संवाद और सोने में सुगंध लिये हुए विद्या बालन का अभूतपूर्व, अद्वितीय, अनुपम, अतुल्य अभिनय. बोलीवुड की सभी सस्पेंस थ्रिलर पर भारी हैं यह फिल्म, शुरू से आप जो सोचते हैं वो वैसा हैं ही नहीं जैसा वो दिख रहा हैं. शायद फिल्म का एक दृश्य भी आप चूक गए तो यह आपका नुकसान हैं इतनी जल्दी घटनाओं का प्रवेश होता हैं लेकिन फिर भी विद्या और सिर्फ विद्या ही आपके दिमाग में होती हैं. परम्ब्रतो चटर्जी ( राणा ) तो विद्या की सखी और फोलोवर लगते है. कहानी की कहानी इतनी कास कर गुंथी गई हैं कि शुरू से आखरी तक आपको बांधे रखती हैं. खास कर क्लाईमेक्स जब आप कुछ भी बोल नहीं पाते जो भी आपकी आखों के सामने हो रहा हैं उससे सकते और असमंजस में आकर बस वाह ! क्या बात हैं यही मुँह से निकलता हैं.
जिन्होंने ‘मेरिड टू अमेरिका’ देखी हैं उन्हें शायद विद्या बागची एक बार पति को खोजती मुसीबतों से जूझती और जान हथेली पर लिये चलती “अर्चना जोगलेकर” की झलक दे सकती है, लेकिन विद्या की मेहनत बड़ी हैं वह एक बहुत बड़े उदेश्य के लिये लड़ रही हैं. शतरंज की इस बिसात पर जिसके नाम पर वह लड रही हैं ना तो वो और उसका वजूद कही हैं और ना उसके दुश्मन उसे दिख रहे हैं. प्रेग्नेंट विद्या अपने बच्चे के लिये जब यहाँ वहाँ धक्के खाती हैं तो हर कोई उससे सहानुभूति जताता हैं लेकिन जब वह दुर्गा बनती हैं तो हर कोई उसे सलाम – प्रणाम करता हैं.
विद्या बालन के रूप में हमे एक ऐसी अदाकारा मिली हैं जो बदनाम मुन्नी, जवान शीला और चिकली चमेली की तरह सस्ती पब्लिसिटी के पीछे नहीं जाती. “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भावती भारतं अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम” विद्या इस बात पर बिलकुल खरी उतरती हैं. जिस बोलीवुड में हीरोइन के लिये चाह कर भी कोई खास काम नहीं निकल पाता था वह सिर्फ एक रूप की सफेद गुडीया बन कर रह जाती थी, वहाँ विद्या अपने अभिनय से कुछ साबित करने निकली हैं, जिसे सार्थक सिनेमा के मायने पता हैं और छिछोरे होते सुनहरे पर्दे पर वह अपनी गंभीरता से अपना नाम लिख रही हैं. जिस तरह के रोल वे कर रही हैं वे सही मायने में भारतीय स्त्री के नजदीक और उसके प्रतिनिधी हैं. डर्टी पिक्चर की सिल्क औरत की अतृप्त इच्छाओं को दिखाती हैं तो पा की माँ एक वात्सल्यमयी लेकिन स्वाभिमानी औरत हैं. जिसे अपने सम्मान का ख्याल है. अगर अभिनय की बात करें तो विद्या बालन नित नए आयम खड़े कर रही हैं. हाल ही में विद्या बालन ने द डर्टी पिक्चर में एक बोल्ड किरदार को पर्दे पर जीवंत किया था और अभी उन पर से उस बोल्ड किरदार का रंग उतरा भी नहीं था कि उन्होंने “कहानी” के द्वारा एक स्त्री के उस वजूद को पर्दे पर साक्षात रूप से जीवंत कर दिया जिसमें स्त्री शक्ति का रूप है, वह अगर चाहे तो कुछ भी कर सकती है कुछ भी. ‘कहानी’ के अंत में बच्चन के जो स्वर सुनायी देते हैं वे विद्या पर भी लागू होते हैं. फिल्म में विद्या बागची द्वारा किये गए साहस की कोई मिसाल नही हैं. कहते हैं अपने मेमने को बचाने के लिये बकरी तक शेर से लड़ जाती हैं. विद्या बागची भी अपने बच्चे के हक के लिये उसके अस्तित्व के लिये अकेली सिस्टम से लड रही हैं. जान को रोज जोखिम में डाल रही हैं. बाब बिस्वास द्वारा उसे मेट्रो के सामने फेकने वाला सीन किसी की भी रूह को कपा देने के लिये काफी हैं. अंतिम दृश्यों में क्या वह नायिका जगदम्बा से कमतर आंकी जा सकती हैं ?? धामजी को मारते वक्त उसके बाल बिखरे हुए... उडती हुई साडी से जो बात याद आती हैं वो जगदम्बा दुर्गा हैं. पुरी फिल्म में विद्या असुरों से लड़ती हुए दुर्गा माँ के संघर्ष की याद दिलाती हैं. विद्या के लिये तो बस एक ही बात दिमाग में आती हैं कि “इन सब मर्दों में यही तो अकेला इकलौता मर्द हैं”
सात्यकी अर्जुन का रथ संचालक ..हां बिलकुल "कहानी" में सात्यकी सिन्हा विद्या बागची के रथ के संचालक ही तो थे जिसे उसने जहा चाहा वहा ले गई. लेकिन मासूम सा राणा किसी के भी दिल को आसानी से छू लेता हैं. आईबी ऑफिसर का छोटा सा रोल भारतीय सुरक्षा विभाग के अधिकारियों की मजबूती और जुर्म से लड़ने के तरीकों को बहुत आसानी से दिखाता हैं. आज से पहले पर्दे पर जितने हत्यारे आये वे सब भयावह डरावने दीखते थे लेकिन बाब बिस्वास, इतनी मासूम शक्ल की किसी को भरोसा ना हो कि वह कितना खूंखार हैं.
अगर अमिताभ बच्चन के गाये हुए “एकला चलो रे” की बात आ कि जाए तो सब व्यर्थ हैं. बंगाली ना होते हुए भी जैसे उन्होंने गाया वो गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर को सच्ची श्रद्धांजली हैं. क्लाईमेक्स में उनके द्वारा किया गया वोईस ओवर सुन कर ऐसा लगता हैं कि पुराणों और वेदों में जिस आकाशवाणी की बात कि गई है वह ऐसे ही सुनायी देती होगी. इतनी डिवाइन, अद्भुत और प्युर वोईस हैं वो.
लास्ट बट दा मोस्ट इम्पोरटेंट “निर्देशक फिल्म का असली हीरो होता हैं” कहानी इतनी अच्छी कभी नहीं बन पाती अगर सुजॉय घोष वहाँ नही होते. अब से पहले कई फिल्मो कई सीरियलों में कोलकाता को देखा लेकिन उस शहर की असली खूबसूरती कभी सामने नहीं आयी.कोलकाता को रंगों और त्यौहार का शहर कहा जाता है और अगर आपको यह बात नजदीक से समझनी है तो इस फिल्म को जरूर देखना चाहिए. कोलकाता की सुंदरता का शायद ही कोई ऐसा रंग हो जिसे निर्देशक ने छोड़ा हो. निर्देशक सुजॉय घोष ने फिल्म के हर भाग को इस कदर पिरोया है जैसे मोतियों की कोई माला.कोलकाता अभी भी युयोर मैजेस्टी की दुनिया में जीता है, जो लंडन से आयी एक गर्भवती महिला को पूरा सम्मान और सत्कार देता है. ये सुजॉय का कोलकता से प्रेम ही था जिसकी वजह से शहर की खूबसूरती इतनी मजबूती से सामने आयी. जिसने उस जगह से प्रेम किया हैं वही उसे इतना प्रेम लौटा सकता हैं. दुर्गा पूजा के बारे में बहुत सुना, बहुत देखा, बहुत पढ़ा लेकिन ‘कहानी’ में दुर्गा पूजा देखने के बाद ये दिली तमन्ना हैं कि एक बार इसे खुद देखू. नारी में दुर्गा होती हैं यह कई बार सुना था लेकिन सुजॉय घोष ने इसे सिद्ध करके पर्दे पर दिखा दिया !!!
इतना अद्भुत सिम्बोलईजेशन शायद ही किसी फिल्म में हुआ होगा. कहानी की टीम को सलाम !!! सुजॉय घोष को सलाम !!!