Sunday, May 1, 2016

An Indian

महाराष्ट्र दिवस की शुभकामनाए? ये क्या आशिता जी आप तो राजस्थानी हो न? हाँ हूँ, लेकिन पिछले पांच सालों से इस शहर में हूँ, इसकी आबोहवा में सांस ली है, इसके बाजारों, सड़कों और मंदिरों को अपना माना है, लोगों को अपना माना है, आखिर इस शहर ने पांच साल पहले आई हुई एक अंजान लड़की को बड़े प्यार से गले लगाया था, इतनी कृतञता तो मेरी भी बनती है. मेरे लिए यह 'छोरी' से 'मुलगी' होने के यात्रा है, लेकिन इस यात्रा में मैं मुलगी जरूर हुई हूँ परन्तु छोरी भी जरूर रही हूँ. 
यह एक संवाद आज तब हुआ जब अपनी आदत के मुताबकि मैंने मोबाइल के सभी कॉन्टेक्ट्स को 'महाराष्ट्र दिवस' की शुभेच्छा भेजी थी. इस शहर से या यूं कहूं मराठी से मेरा पहला साबका तब पड़ा था जब कॉलेज के पहले दिन एक सहपाठी ने मुझ से पूछा था, "तुझा नाव काय रे" उस दिन कुछ समझ नहीं आया, लेकिन ये समझ आया था कि कोई तो है, जो मेरे बारें में जानना चाहता है.
नटरंग मेरी पहली मराठी फिल्म, जो कॉलेज के मूवी एप्रिसिएशन लेक्चर के दौरान देखि थी, उस दिन तो काला अक्षर भैंस बराबर ही रहा, पर, आप मराठी फिल्में हिंदी पर मेरी प्राथमिकता, नटरंग के चलते ही बनी.
कैरियर की शुरुआत मेट्रो सेवन डेज, और स्टोरी के दौरान एक मालन से पता पुछना, और उसका हिंदी से न समझा पाना लेकिन दूकान छोड़ के आगे तक आना और मुझे मेरी मंजिल दिखा देना, इस अंजानी भाषा के थोड़ा और करीब ले आया.
ट्रेन का पुढे चला, लवकर चला, हमेशा मेरे लिए एक पहेली था, आखिर इन्हे 'लव क्यों करना है ट्रेन में?' ये सवाल आज बस हंसा भर देता है.
गणपति के वो मोदक और गलियों में बप्प्पा मोरिया और गोविंदा कर के बरबस बैंड पर नाच देना, अर्थ न समझने के बावजूद, सुख कर्ता, दुःख हर्ता बाय हार्ट याद कर लेना, और फिर जय गणेश जय गणेश देवा की जगह सुख कर्ता दुःख हर्ता गुनगुना शुरू कर देना, याद भी नहीं कब अचानक बरबस इस अंजानी भाषा ने मेरे शब्दकोष के न जाने कितने शब्दों को स्थानांतरित कर दिया।
न जाने कब गधेरों, बांदरो की जगह, मेल्या, कुत्र्या ने ले ली. ना जाने कब नव समवतरसर की शुभकामना गुड़ी पाड़वा की शुभेच्छा बन गयी. जन्मदिन मुबारक, वाढदिवसाच्या हार्दिक शुभेच्छा हो गया. आओ सा, बिराजो, को न जाने कब बस ना हे घे, बना लिया खुद भी याद नहीं।
मालवणी में रिपोर्टिंग करते हुए, अदब से सर ढंक कर आदाब कहना, और टर्मिनल टू पर वन पीस में हाय कहना, यह दोनों देन मुंबई की ही तो है. वीक ऑफ़ को विरार कोलीवाड़ा घूमना और संडे नाइट को मरीन ड्राइव के चक्कर लगाना यह रंग मुंबई के ही तो है. 
अभी थोड़े दिन पहले मम्मी, मौसी के पास इंदौर गई थी, और उनका पहला ही सवाल था, टीवी में कुछ नेताओं के भाषण सुनते है, अपनी लड़की उस शहर में अकेले कैसे रहती होगी, और माँ ने मुस्कुरा कर कहा उसी तरह जैसे माँ की जगह बेटी मौसी के पास रह जाती है.
हाँ धरती धोरा री, आ तो सुरगा ने सरमावै आज भी रोंगटे खड़े कर देता है लेकिन, गरजा महाराष्ट्र माझा भी तो रोमांचित कर देती है.
बचपन में हमारे स्कूल में प्रार्थना के बाद एक नारा लगवाया जाता था, जय राणा प्रताप की, जय शिवा सरदार की. हाँ बिलकुल जितनी श्रद्धा से राणा के आगे सर झुकता आया है उसी स्नेह से शिवा को नतमस्तक होती हूँ, जो उबाल गढ़ चित्तौड़ को देख कर आता है वहीं जज्बा सिंधुदुर्ग भी तो दे जाता है.
तो फिर क्या अंतर है दोनों में, है तो दोनों मेरी मां और मौसी ही न!!
जय राणा प्रताप की, जय शिवा सरदार की
- आशिता दाधीच





2 comments:

  1. कलम जब चलने लगती है तो कालम लिखो या कलाम, लिखने की समझ भी आ जाती है। लेख अच्छा लगा। जहां तक मुंबई का प्रश्न है नदियों को आकार समुद्र मे ही मिलना होता है। और इस समुद्र मे सीखने वाले तैरने लगते हैं और तैराक डूब जाते हैं।शुभकामनायें

    ReplyDelete
  2. माफ कीजिये एक बात जननी थी किस समाचार पत्र के लिए लिखती हैं।समय हो तो बताने का कष्ट करें।धन्यवाद

    ReplyDelete