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Tuesday, April 7, 2015

गणगौर

आज फिर सिंजारा था।
उसने उसी के नाम की मेहंदी लगाई।
हल्दी चन्दन से खुद को महकाया।
देर रात तक चूल्हे की आग में खुद तो तपाकर भोग बनाया।
सब कुछ उस नीरे जुल्मी की खातिर
जो आज की रात भी पड़ा होगा किसी रेलवे ब्रिज के नीचे।
कोकीन के नशे में मदहोश।
जैसे तैसे आसूंओं संग उसने रात तो काट ली।
फिर सुबह से जुट गई अपने गणगौर को रिझाने में।
उस प्रियतम की उमर तरक्की और न जाने किस किस की खातिर।
जुटी थी वो पूजा का थाल सजाने में।
दरवाजे पर हलचल थी।
शायद उसके आने की आहट थी।
कपाट खोल कर देखा उसने तो पाया
प्रियवर के एक संगी को।
जो इक बार फिर लाया था वो लौटाया हुआ प्रणय निवेदन।
ठुकरा कर सारी दुनिया को अपने आत्म सम्मान को खुद में समेटे वो जुट गई गणगौर पूजने में।
फिर आया वो जिसके नाम पर यह पूजा थी।
शराब की गंध से लथपथ।
सिगरेट की बदबू से सरोबार।
कल रात की कहानी भी उसके शर्ट पर
लगे लिपस्टिक के निशानों ने चीख कर कह दी।
कहा थे सारी रात
कितना बड़ा दिन है आज
उसने पूछा ही था कि गालों पर तमतमाता सा इक तमाचा गुंजा।
कब तक सहती रहेगी वो ये सारा अत्याचार
उसने मां गणगौर को देखा।
माँ जैसे मुस्कुराई और कहा कि यदि में सती हूँ तो चंडी भी हूँ।
उसे जैसे कुछ याद आया।
पल्लू पेटीकोट में समेटती हुई उठी
नहीं परवाह है मुझे तेरी
मेरे व्रत मेरे हैं।
नहीं दूंगी मेरे किसी पुन्य का फल तुझे कहकर
वो निकली उस चौखट से जहा से उसे बस अर्थी बन कर ही उठना था।
वो निकली उस चौखट से फिर कभी वापस न आने के लिए।
 
©आशिता दाधीच

सरदार पूर्ण सिंह की कथा करवा चौथ से प्रेरित
गणगौर राजस्थानीयो के लिए करवा चौथ जैसा ही पर्व हैं।