Tuesday, April 7, 2015

THAT Shirt

वो पहली शर्ट.
तेरे जन्मदिन की खतिर तेरे लिए वो शर्ट लेना।
आज भी याद हैं मुझको
उस दुकानदार के आगे थोड़ा सा लजाना
और ढेर सा शर्माना।
पूछने पर तेरी साइज न बता पाना।
और अपनी बांहे फैला कर याद करने की कोशिश करना
कि कितना समाता था इस दरमियान तू।
काउंटर पर खड़े उस लड़के से ये पूछना कि
ये शर्ट तुझे सूट करेगी या नहीं।
और उसका तेरी कद काठी के बारे में पूछना।
मेरा शरमाना और तुझे मोस्ट हैंडसम मैन ऑफ़ द वर्ल्ड कहना।
चेंजिंग रूम में जाकर वो शर्ट खुद पहनना और
अपने अपने अंदर तेरी छवि को इठलाता पाकर वो
शर्ट खरीद लेना।
पाई थी मैंने कायनात जब उस शर्ट को देख कर
तेरी आँखों में चमकते देखे थे हजारों सूरज एकसाथ।
आशिता दाधीच
 
 
 
 
 

कुछ अलग हूँ। I'm Different

हां, मैं उन जैसी नहीं।
कुछ अलग हूँ।
बचपन से सीखा है अपने अंदाज में जीना।
अपनी शर्ते बुनना और सी पिरो कर निभाना।
जो चाहे अपनी तरीके से पाने में जुटाना।
भीड़ से थलक पड़कर खुद का जहां बसाना।
जब गुड्डे गुड़ियों की शादी कराती थी
मेरी उम्र की वो लडकियाँ
मैं जुटी थी मेघदूतम के उस यक्ष की पीर समझने में।
जब उनका दिल लुभाती थी
ठेले में सजी चूडियां
मैं खोजा करती थी
अमृता की कहानियाँ।
जब वे बारिश से डरी सहमी
छुपी रहती थी घर में।
मैं सांस बिखरने तक खेला करती थी
क्रिकेट मोहल्ले की गलियों में।
जब वे चलाती थी करछी
रसोइयों में
मैं पापा के संग जुटी थी
व्यापार के विस्तार में।
जब खोजा करती थी वे
कोई सुदर्शन युवक
तलाश तब भी जारी थी मेरी
खुद में खुद को पाने की।
जब गहनों से सज कर
इठलाती थी वे
मैं इतराती थी हर कदम
दुनिया को मात देकर।
जब उन्हें बिहारी का प्रेम साहित्य लुभाता था
मैं लापता थी मैक्सिम गोर्की को समझने में।
जब किसी पुरुष की खुशियों में
अपनी खुशियाँ खोजा करती थी वे
मैं जुटी थी अपने प्रियतम की बगिया में
खुशियों के पौधे उगाने में।
परिभाषाओं से परे
खुद के लिए
अलग होकर भी एकाकार होती मैं।
स्वीकार नहीं थी
उस मानसिकता को
जो आदि था
पद दलित देखने का
लताड़ा गया
कुलटा के उपमानों से
पर जीवन मेरा हैं
मैं अलग हूँ।
और
मुझे प्रिय हैं अलग होना
नहीं जी सकती मैं
उन बन्धनों में
जहां
नारी चौके -चूल्हे में कैद हैं।
जहां उसके प्रेम को चरित्रहीनता कहा जाता हैं।
जहां उसके समर्पण को अश्लीलता माना जाता हैं।
  
जहां तय हैं अन्तरग पलों में उसका व्यवहार।
इजाजत नहीं हैं उसे इससे इतर जाने की।
जहाँ उसे मापा जाता हैं उसके वस्त्रो से।
जहां उसे जांचा जाता है उसकी चाल से।
हां, मैं उन जैसी नहीं।
कुछ अलग हूँ।
क्युकी एतराज है मुझे उस ढर्रे से।
जहां इंसानों को सांचे में ढाल कर
उम्मीद की जाती हैं
किसी कठपुतली सा बर्ताव करने की।
 
 
©आशिता दाधीच
 
 
 
 

Thursday, March 19, 2015

Cricket is Life

ये जिन्दगी भी तो क्रिकेट का एक खेल हैं।

 जो एक इनिंग में शतक लगता हैं
वही दूसरी पारी में सून्य पर बिखर जाता हैं।

 जिसे कल शाम न्यूज में महानायक कहा था
 वो आज खलनायक बन जाता हैं।

 सांझेदारी बढाने को जो शुरू से साथ आया था
वो ना जाने क्यों बिछड़ जाता हैं।

 जो बाउंसर डाल कर चोटिल करने की फिराक में था
 वही लड़खडानें पर मदद को आगे आता हैं।

 पारी की शुरुआत हमेशा तालियों से होती हैं
फिर दुनिया हुटिंग और गालियां भी देती हैं।

 शतक भी हुआ तो नुसख निकालने वालों की भीड़ उमड़ती हैं।
अपूर्ण स्वार्थी और हरजाई कहकर दुनिया बुलाती हैं।

 और फिर  पेड बांधे हम तैयारी में जुट जाते हैं।

 कोई गेंद बाउंड्री छू जाती हैं तो कोई कैच हो जाती हैं
पर बल्लेबाजी में टिके रहने की जद्दोजहद जारी रहती हैं ।

 कभी तारीफों के फूल बरसते हैं तो कभी घर पर पत्थरबाजी होती हैं।

 जिसके लिए पवेलियन और स्टैंड गूंजते हैं
वो एकाएक तन्हाई में खो जाता हैं।

 जिसके आगे कभी फैन बिझते थे ऑटोग्राफ लेने को
 वो अब कैशबुक पर साइन करने को तरस जाता हैं।
 
#आशिता दाधीच

you and I

तुम और मैं कभी एक न हुए

 फिर भी मोर्निंग वाक पर अलसाए से भागते जोड़े में हम जी लेते हैं।

 बस का वेट करते एक दुसरे से बतियाते जोड़े में हम हंस लेते हैं।

 हाथ में हाथ डाले दरिया किनारे चलते जोड़े में हम पैर भिगो लेते हैं।

 लोकल के उस प्लेट फॉर्म पर बस झलक से देते जोड़े में खुद को पाते हैं।

 ऑफिस की झिडकी से तंग दुःख बांटते जोड़े में हम खुशियाँ पा जाते हैं।

 हाँ हम एक नहीं पर हम हर एक में जीते हैं।

 एक होकर भी मिल नहीं पाते हैं।

 खुद को दूसरे में तलाशते नजर आते हैं।
 
खुशियों  की खतिर निर्भर हो जाते हैं।

Friday, March 13, 2015

हाँ वो बड़ी हो रही हैं। Growing Old


 दस रूपये की चॉकलेट मंगाने के लिए भी मां को आवाज देने वाली
अब दस किलो आटा कंधे पर ढ़ो कर ला रही हैं।

 एक नाख़ून टूट जाने पर रो रो कर घर सर पर उठा लेने वाली
दिल टूट जाने पर भी चुप साधे दौड़ रही हैं।

 हजारों रूपये के कपड़ें लाने वाली
 अब बीस बीस रूपये चार बार जोड़ कर जाँच रही हैं।

 मन माफिक गुडिया के लिए डट जाने वाली
अब खुद गुडिया बनी लोगों के खेल से बचने की जुगत लगा रही हैं।

 पापा की गोदी में छिप कर खिलखिलाने वाली
दुनिया से हर बार तनहा लड़ जा रही हैं।
 
दोस्तों में खुशियां लुटाने वाली
अब जोड़ तोड़ कर खुशियां मना रही हैं।
 
मनमांगी चीजें पाने के लिए अड़ जाने वाली
अब चीजों को छोड़ना सिख रही हैं।
 
मन मांगी मुरादों को अलमारी में छिपाने वाली
अब उपहारों को अबलों में बांटना सिख रही हैं।
 
बिन मांगे बिन चाहे सब कुछ पा जाने वाली 
अब बिना कुछ चाहे बिना कुछ मांगे अपने दम पर पाना सिख रही हैं।

 वो बड़ी हो रही हैं।

 अपने सपने को जीने की खातिर
वो बड़ी हो रही हैं।

 उस बेरंग कैनवास पर रंग भरने को
वो बड़ी हो रही हैं।
 
 
 
 

Sunday, March 8, 2015

International Women's Day

आखिरकार महिला दिवस की कविता लिखी
पेश हैं चुनिन्दा पंक्तियाँ

सबल अबला हूँ मैं।

पिता की लाडली धनुर्धारी जनक नंदिनी हूँ मैं तो पति की अनुगामिनी राम दुलारी भी हूँ मैं।
पथ प्रदर्शिका गार्गी मैत्रेयि हूँ मैं तो कुटिलता की शिरोमणि मंथरा भी हूँ मैं।
सम्मान की खातिर यज्ञ में जल जाने वाली सती हूँ मैं तो मोहित करने वाली रम्भा मेनका भी हूँ मैं।
विष पी जाने वाली मीरा हूँ मैं तो अमृत बांटने वाली मोहिनी भी हूँ मैं।

कर्तव्य मार्ग पर भेजने वाली राधा, उर्मिला यशोधरा हूँ मैं तो निस्वार्थ प्रेम करने वाली शबरी भी हूँ मैं
रण में जूझ कर पति को बचाने वाली पद्मिनी हूँ
मैं तो सर काट कर प्रेरणा देने वाली हाड़ी भी हूँ मैं।
पत्थर बनी अहिल्या हूँ मैं तो सतीत्व निभाती अनुसूया भी हूँ मैं।
बाँध के बच्चा लड़ती लक्ष्मी हूँ मैं तो पैर दबाती लक्ष्मी भी हूँ मैं।

शिव के वामंग में रहकर मंगल करती पार्वती हूँ मैं तो सम्मान की खातिर तांडव करती चंडी हूँ मैं।

हाथ पकड़ कर साथ चलती साथी भी हूँ मैं
आगे बढ़कर राह दिखाती गुरु भी हूँ मैं।

आशिता दाधीच

Thursday, November 6, 2014

नाम The Name



वो रिश्ता.....
तेरा मेरा वो रिश्ता
क्या था वो,
क्या नाम था उसका,
क्या पहचान थी उसकी.
न कभी दुनिया समझी
न ही कभी तू ही समझा....
बस एक मैं थी,
जो खोजा करती इस सवाल का जवाब,
कोई एक नाम, कोई तो पहचान,
पर शायद, दुनिया की बंदिशों से परे था,
तेरा और मेरा वो प्यार बेहद खास.....
मेरे लिए तू ऊँगली पकड़ कर चलने वाला पिता था,
तू ही हर अला बला से बचाने वाला भाई था,
तेरे ही संग माँ की गोद का अहसास होता था,
तुझे हर बात बहन की तरह कहने का क्रम था...
मेरे लिए तू स्वाति की एक बूंद था,
मेरे लिए तेरा होना रेगिस्तान की छांव था,
मेरे लिए तेरा साथ तूफान की मंझधार था,
मेरे लिए तेरा वजूद जीने की वजह था,
पर दुनिया चाहती थी एक नाम,
तेरी मेरी आत्मा नहीं देखी एक जान,
तू मर्द था मैं औरत,
नाम बिन न होता है रिश्ता खास
ये दुनिया का दस्तूर था,
उनके रवायते भी और परंपरा भी..
न दुनिया से तू दूर था ना रिवाजों से,
जिद मेरी भी थी इस रिश्ते तो नाम देने की,
पर नाम क्या दू?
मेरा तो सब कुछ तू था,
तुझसे शुरू तुझ से ख़तम
इस कहानी में तू ही तो नायक था .....
जो मैं तेरे इर्द गिर्द थी
तो तू भी तो कुछ करीब था...
कितने खुश थे हम एक साथ,
पर, एक दूजे के खातिर नहीं बने थे,
ये भी तो थी एक बात....
हम दो अलग थे ही नहीं
गहरे तक हम दोनों एक थे...
आत्मा था तू तो मैं जिस्म
शरीर था तू तो मैं रूह
पर संग रह कर भी हम संग रहने के लिए न थे.....
तू मेरे जैसा था पर मैं नहीं,
मैं तेरे जैसी थी पर तू नहीं.....
नाम देने की ये कोशिश ले डूबी
हमें एक साथ....
तू वीरान हुआ तो मैं तनहा,
फिर क्यों देना था एक नाम..
क्या हम दोस्त थे ये काफी नहीं था,
क्या हम दोनों एक दूजे की आत्मा के थे
ये कुछ कमतर था...
क्यों नाम न होने से नाजायज था
हमारे रिश्ते का नाम...
हम संग थे इससे किसी को था क्या एतराज,
हम पाक थे इसपे किसे को क्यों न था एतबार....
क्यों नाम देने के जिद में,
मिटा दिया गया,
इस दुनिया से हमारे रिश्ते का,
हर नामो – निशान