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Thursday, April 23, 2015

सवाल The Question

 
 
सवाल नहीं करते?
आज भी जब मेरे पैर पड़ते है मरीन ड्राइव की उस बाउंड्री पर
तो चीख कर वो मुझसे तेरा पता पूछती हैं।
 
हाजी अली की दरगाह का वो रास्ता
मेरा हाथ खाली देख कर समुद्र में छिप जाता हैं।
 
दादर स्टेशन का वो छोटू
दीदी, भैया कहां हैं पूछ जाता हैं।
 
सीएसटी का वो पान वाला आज भी
पैसे किसके खाते में लिखूं सवाल करता हैं।
 
बोरीवली का वो नैशनल पार्क अब मेरे हांफ जाने पर
सहारा देने के लिए तुझे पुकारा करता है।
 
हर बार कुछ खाने पर गालों पर फैला अन्न
मुंह पोंछ देने को तेरा रुमाल मांगता है।
 
फिल्म देखने से मुड चुकी मेरी गर्दन
सहारा देने के लिए तेरा ही कंधा मांगती है।
 
माउंट मेरी की वो सीढ़ियां पूछा करती है
कि मुझे गोद में उठा कर बिना हांफे दौड़ने वाला कहां है।
 
आसमां में उगा सूरज भी पूछा करता है
कि क्यों अब वह हमारी उंगलियों के बीच से नहीं निकल पाता है।
 
मेरे घर का वह बिस्तर पूछा करता है
कि क्यों अब उसमें लिपट कर सोने वाला नहीं आता है।
 
वर्सोवा का वो किनारा पूछा करता है
कि अब तू पैर भिगोने कहा जाता है।
 
सड़क पर भौंकने वाला कुत्ता भी पूछा करता है
कि डर से तू जिसे लिपटा करती थी वो कहा गया।
 
चेहरे पर आ लटकी जुल्फे भी पूछा करती है
उन्हें हटाने वाला अब कहा गया।
 
माथे पर आ जमी पसीने की बूंदे पूछा करती है
कि उसे पोंछने वाला कहा गया।
 
न जाने कितनी सखियां कितने परिचित और कितने रास्ते पूछा करते है
तू कहां गया
क्या कोई तूझसे नहीं पूछा करता
क्या कोई तूझे सवाल नहीं करता
करता है तो क्यों तू उन सवालों से हलकान नहीं होता।
 
 
 
 

Friday, March 13, 2015

हाँ वो बड़ी हो रही हैं। Growing Old


 दस रूपये की चॉकलेट मंगाने के लिए भी मां को आवाज देने वाली
अब दस किलो आटा कंधे पर ढ़ो कर ला रही हैं।

 एक नाख़ून टूट जाने पर रो रो कर घर सर पर उठा लेने वाली
दिल टूट जाने पर भी चुप साधे दौड़ रही हैं।

 हजारों रूपये के कपड़ें लाने वाली
 अब बीस बीस रूपये चार बार जोड़ कर जाँच रही हैं।

 मन माफिक गुडिया के लिए डट जाने वाली
अब खुद गुडिया बनी लोगों के खेल से बचने की जुगत लगा रही हैं।

 पापा की गोदी में छिप कर खिलखिलाने वाली
दुनिया से हर बार तनहा लड़ जा रही हैं।
 
दोस्तों में खुशियां लुटाने वाली
अब जोड़ तोड़ कर खुशियां मना रही हैं।
 
मनमांगी चीजें पाने के लिए अड़ जाने वाली
अब चीजों को छोड़ना सिख रही हैं।
 
मन मांगी मुरादों को अलमारी में छिपाने वाली
अब उपहारों को अबलों में बांटना सिख रही हैं।
 
बिन मांगे बिन चाहे सब कुछ पा जाने वाली 
अब बिना कुछ चाहे बिना कुछ मांगे अपने दम पर पाना सिख रही हैं।

 वो बड़ी हो रही हैं।

 अपने सपने को जीने की खातिर
वो बड़ी हो रही हैं।

 उस बेरंग कैनवास पर रंग भरने को
वो बड़ी हो रही हैं।