Saturday, April 18, 2015

दर्द The Pain

हाँ दर्द होता हैं।

दर्द होता हैं जब महीनों की मेहनत से संवारा हुआ एक नाख़ून टूट जाता हैं।
 दर्द तब भी होता है जब बरसों से संवारे रिश्ते झट से जात धर्म के नाम पे टूट जाते हैं।

दर्द होता हैं उन पांच दिनों तक जब माहावारी होती हैं।
दर्द तब भी होता है जब इसी खून से जना बेटा घर से निकाल देता हैं।

दर्द तब भी होता है जब आएब्रो बनवाने की असीम पीड़ा से दो चार होते हैं।
 दर्द तब भी होता है जब अखबार में पेट में पलती किसी बेटी की मौत की खबर होती हैं।

दर्द तब भी होता है जब चमड़ी पर मोम से जलता वैक्स डाला जाता है।
दर्द तब भी होता है जब बहु बनने पर हमें जला दिया जाता हैं।

दर्द तब भी होता हैं जब अपनी फेवरिट ड्रेस फट जाती हैं।
दर्द तब भी होता है जब किसी का दुप्पटा फाड़ने की कोशिश की जाती हैं।

दर्द तब भी होता है जब हम अपनी ही ड्रेस में नहीं समा पाते हैं।
दर्द तब भी होता है जब किसी के कपड़े तार तार फाड़े  जाते हैं।

दर्द तब भी होता है जब हमारी गुड़िया टूट जाती हैं।
दर्द तब भी होता हैं जब हमारी भावनाएं मरोड़ दी जाती हैं।

दर्द तब भी होता है जब वो प्यार से बांह उमेठ देता हैं।
दर्द तब भी होता है जब अपने हाथ थकने तक वो बेल्ट से मारता हैं।

दर्द तब भी होता है जब व्हिस्पर खरिदने पर हमारा मजाक बनता हैं।
दर्द तब भी होता है जब कपड़ो के बूते वो हमे कुलटा कहते हैं।

हाँ तब भी दर्द होता हैं
बहुत दर्द होता हैं।
क्यों हमे ही यह दर्द होता हैं?
और क्यों हमें ही ये दर्द दिया जाता हैं।

©आशिता दाधीच

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Tuesday, April 7, 2015

LOVE

बहुत मुहब्बत है तुमसे
कल भी थी आज भी है
और सांसों के वजूद तक रहेगी
फिर भी दिवार है एक
हम दोनों के बीच
तेरी और मेरी ऊँचाइयों से ऊँची
तेरी उस चौड़ी छाती से भी चौड़ी।
दिवार मेरे आत्म सम्मान की।
दिवार मेरे समर्पण की।
तुझे तुझ से बेहतर बनाने की
चाहत की।
नहीं बर्दाश्त हैं मुझे।
मेरी सिवा किसी और का तेरे लबों पे सजना।
नहीं देख सकती मैं।
अपने सिवा किसी और के नशे में खोते तुझे।
अपनी हर शाम तेरे साथ बिताई है
क्या बदले में तेरी शामों पर हक नहीं मेरा।
हर बार सोलह आने मुहब्बत लुटाई हैं।
पाने के लिए बस चार आने पाए हैं।
अपना कल आज और कल भुलाकर तेरी बांहों में सजी हूँ ।
और तुझे हर रात तेरी पहली बर्बाद मुहब्बत के नाम सिसकते देख के मरी हूँ।
दुनिया के प्रपंच भुला के जब तेरे करीब आई हूँ।
तुझे बस मय खाने की मदहोशी में पाती आई हूँ।
क्या मेरी आँखों का नशा कम था।
जो तुझे जाम उठाने पड़ते थे।
क्या मेरा समर्पण कम था।
जो तुझे गैरों की याद दिलाते थे।
क्या कम था।
प्यार
या
शायद नशा ही तेरा प्यार था।
मैं तो सिफर एक खाना पूर्ति की।
शराब के अलावा तेरा मन बहलाने की खातिर।
- Ashita VD

It's Broken

 
 
 
हाँ नहीं आया मुझे।
तुम्हारी तरह
दुनिया को इस टूटे दिल का दर्द दिखाना।
हाँ नहीं आया मुझे
हर रात नशे में गाफिल होकर घर लौट आना।
किसी के कुछ पूछ लेंने भर से आपे से बाहर आ जाना।
नहीं आया मुझे
जुदाई के दर्द को कश ब कश सिगरेट के छल्ले बना कर हवा मैं उड़ाना।
मुझे आया तो बस चाय ठंडी हो जाने तक रुक कर तुम्हारा इन्तजार करना।
नहीं आया मुझे जाम पर जाम उठा कर गम को काफूर करना।
मैं तो बस अपने काम में आकंठ डूब कर भुलाती रही गम करना।
नहीं आया मुझे किसी कोकीन के इंजेक्शन से तुम्हे भूलना।
मुझे तो बस आया तुम्हारी यादों की अलमारी पर ताला लगाना।
नहीं आया मुझे हर रात सडकों में तमाशे करना।
नहीं आया मुझे किसी और से जुड़ कर भूलाना।
नहीं आया मुझे बस बिना मुड़े चले जाना।
नहीं आया मुझे अंधेरों में खोना।
मुझे आया तो बस रात के अंधेरों में हमारी उस सुहाग रात वाली पलंग पर तकिए से चिपक कर चुप चाप सो जाना।
और अपनी आती जाती सांसों में तुम्हे महसूस कर लेना।
- Ashita VD

AIDS

लगभग एक साल से नीरज के साथ लिव इन रिलेशन में थी सिया। एक दिन अचानक उसने सुनीता का हाथ थाम लिया और सिया को दिल से निकाल कर उस के घर से निकल गया। गम में आकंठ डूबी सिया को भी बस हाथों की नस काट कर मौत को गले लगाना ही नजर आया।

खून रिसता रहा और सिया बेहोशी में डूबती गई। आँख खुली तो खुद को अस्पताल में पाया।

क्या कभी ब्लड डोनेट किया हैं या इजेक्शन लिया हैं कोई। नर्स ने गोली की तरह सवाल दागा।

नहीं तो कभी नहीं सिया बोली।

ओके पर तुम एचआईवी पोजीटिव हो।

सिया की आँखों के आगे अन्धेरा छा गया। कुछ समझ नहीं आया। कहि नीरज गलत तो नहीं था दिल से आवाज आई। छि छि वो ऐसा नहीं हो सकता। शायद मेरी ही कहि कोई चुक हैं सिया बस खुद को धिक्कारती रही।
 

गणगौर

आज फिर सिंजारा था।
उसने उसी के नाम की मेहंदी लगाई।
हल्दी चन्दन से खुद को महकाया।
देर रात तक चूल्हे की आग में खुद तो तपाकर भोग बनाया।
सब कुछ उस नीरे जुल्मी की खातिर
जो आज की रात भी पड़ा होगा किसी रेलवे ब्रिज के नीचे।
कोकीन के नशे में मदहोश।
जैसे तैसे आसूंओं संग उसने रात तो काट ली।
फिर सुबह से जुट गई अपने गणगौर को रिझाने में।
उस प्रियतम की उमर तरक्की और न जाने किस किस की खातिर।
जुटी थी वो पूजा का थाल सजाने में।
दरवाजे पर हलचल थी।
शायद उसके आने की आहट थी।
कपाट खोल कर देखा उसने तो पाया
प्रियवर के एक संगी को।
जो इक बार फिर लाया था वो लौटाया हुआ प्रणय निवेदन।
ठुकरा कर सारी दुनिया को अपने आत्म सम्मान को खुद में समेटे वो जुट गई गणगौर पूजने में।
फिर आया वो जिसके नाम पर यह पूजा थी।
शराब की गंध से लथपथ।
सिगरेट की बदबू से सरोबार।
कल रात की कहानी भी उसके शर्ट पर
लगे लिपस्टिक के निशानों ने चीख कर कह दी।
कहा थे सारी रात
कितना बड़ा दिन है आज
उसने पूछा ही था कि गालों पर तमतमाता सा इक तमाचा गुंजा।
कब तक सहती रहेगी वो ये सारा अत्याचार
उसने मां गणगौर को देखा।
माँ जैसे मुस्कुराई और कहा कि यदि में सती हूँ तो चंडी भी हूँ।
उसे जैसे कुछ याद आया।
पल्लू पेटीकोट में समेटती हुई उठी
नहीं परवाह है मुझे तेरी
मेरे व्रत मेरे हैं।
नहीं दूंगी मेरे किसी पुन्य का फल तुझे कहकर
वो निकली उस चौखट से जहा से उसे बस अर्थी बन कर ही उठना था।
वो निकली उस चौखट से फिर कभी वापस न आने के लिए।
 
©आशिता दाधीच

सरदार पूर्ण सिंह की कथा करवा चौथ से प्रेरित
गणगौर राजस्थानीयो के लिए करवा चौथ जैसा ही पर्व हैं।

THAT Shirt

वो पहली शर्ट.
तेरे जन्मदिन की खतिर तेरे लिए वो शर्ट लेना।
आज भी याद हैं मुझको
उस दुकानदार के आगे थोड़ा सा लजाना
और ढेर सा शर्माना।
पूछने पर तेरी साइज न बता पाना।
और अपनी बांहे फैला कर याद करने की कोशिश करना
कि कितना समाता था इस दरमियान तू।
काउंटर पर खड़े उस लड़के से ये पूछना कि
ये शर्ट तुझे सूट करेगी या नहीं।
और उसका तेरी कद काठी के बारे में पूछना।
मेरा शरमाना और तुझे मोस्ट हैंडसम मैन ऑफ़ द वर्ल्ड कहना।
चेंजिंग रूम में जाकर वो शर्ट खुद पहनना और
अपने अपने अंदर तेरी छवि को इठलाता पाकर वो
शर्ट खरीद लेना।
पाई थी मैंने कायनात जब उस शर्ट को देख कर
तेरी आँखों में चमकते देखे थे हजारों सूरज एकसाथ।
आशिता दाधीच
 
 
 
 
 

कुछ अलग हूँ। I'm Different

हां, मैं उन जैसी नहीं।
कुछ अलग हूँ।
बचपन से सीखा है अपने अंदाज में जीना।
अपनी शर्ते बुनना और सी पिरो कर निभाना।
जो चाहे अपनी तरीके से पाने में जुटाना।
भीड़ से थलक पड़कर खुद का जहां बसाना।
जब गुड्डे गुड़ियों की शादी कराती थी
मेरी उम्र की वो लडकियाँ
मैं जुटी थी मेघदूतम के उस यक्ष की पीर समझने में।
जब उनका दिल लुभाती थी
ठेले में सजी चूडियां
मैं खोजा करती थी
अमृता की कहानियाँ।
जब वे बारिश से डरी सहमी
छुपी रहती थी घर में।
मैं सांस बिखरने तक खेला करती थी
क्रिकेट मोहल्ले की गलियों में।
जब वे चलाती थी करछी
रसोइयों में
मैं पापा के संग जुटी थी
व्यापार के विस्तार में।
जब खोजा करती थी वे
कोई सुदर्शन युवक
तलाश तब भी जारी थी मेरी
खुद में खुद को पाने की।
जब गहनों से सज कर
इठलाती थी वे
मैं इतराती थी हर कदम
दुनिया को मात देकर।
जब उन्हें बिहारी का प्रेम साहित्य लुभाता था
मैं लापता थी मैक्सिम गोर्की को समझने में।
जब किसी पुरुष की खुशियों में
अपनी खुशियाँ खोजा करती थी वे
मैं जुटी थी अपने प्रियतम की बगिया में
खुशियों के पौधे उगाने में।
परिभाषाओं से परे
खुद के लिए
अलग होकर भी एकाकार होती मैं।
स्वीकार नहीं थी
उस मानसिकता को
जो आदि था
पद दलित देखने का
लताड़ा गया
कुलटा के उपमानों से
पर जीवन मेरा हैं
मैं अलग हूँ।
और
मुझे प्रिय हैं अलग होना
नहीं जी सकती मैं
उन बन्धनों में
जहां
नारी चौके -चूल्हे में कैद हैं।
जहां उसके प्रेम को चरित्रहीनता कहा जाता हैं।
जहां उसके समर्पण को अश्लीलता माना जाता हैं।
  
जहां तय हैं अन्तरग पलों में उसका व्यवहार।
इजाजत नहीं हैं उसे इससे इतर जाने की।
जहाँ उसे मापा जाता हैं उसके वस्त्रो से।
जहां उसे जांचा जाता है उसकी चाल से।
हां, मैं उन जैसी नहीं।
कुछ अलग हूँ।
क्युकी एतराज है मुझे उस ढर्रे से।
जहां इंसानों को सांचे में ढाल कर
उम्मीद की जाती हैं
किसी कठपुतली सा बर्ताव करने की।
 
 
©आशिता दाधीच